पत्र - आप सब जवानों के प्रति ( A letter to Indian Army)

Salute to Indian Army


हमारी देश की सेना अर्थात् आप सब वीर जवानों के प्रति,

                         सबसे पहले तो मैं आप सब वीर जवानों को सलाम और अभिवादन करता हूँ! और ये बताना चाहता हूँ कि आज ये पत्र लिखते हुए मुझे बहुत गर्व महसूस हो रहा है; और कुछ हद तक आँख भी उतनी ही नम है। 
मुझे नहीं पता मैं ये पत्र क्यूँ लिख रहा हूँ, पर आज माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'पुष्प की अभिलाषा' पढ़ते हुए न जाने क्या ऐसा महसूस हुआ कि मैं खुद को रोक नहीं पाया।
मैं जानता हूँ कि आप सब वीर जवान हमारे देश की सुरक्षा के लिए और हम नागरिकों के लिए दिन-रात देश के सरहदों पर तैनात रहते हैं, पर इतने पर भी मैं कभी आप लोगों के स्थान को उस हद तक नहीं समझ पाया, जितना वो एक पुष्प समझता है। वो पुष्प जो अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए मुझे ये एहसास करा जाता है कि अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा क्या होती है। वो पुष्प मुझे शर्मसार कर जाता है जब मुझे ये पता चलता है कि वो पुष्प आप सब वीर जवानों के प्रति भगवान से भी ऊपर श्रद्धा रखता है। 
आप सब वीर जवानों के प्रति जो सम्मान और समर्पण पुष्प की अभिलाषा से जाहिर होता है, वह पुष्प के मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा को भी निश्छल रूप से जाहिर करता है। वो पुष्प न किसी देवकन्या के आभूषणों में गुँथना चाहता है, न ही किसी प्रेमी-प्रेमिका के बीच पुष्पमाला का हिस्सा बनना चाहता है, और न ही वह किसी सम्राट के शवों या कब्रों पर ही चढ़ना चाहता है। यहाँ तक कि वह पुष्प भगवान के शीश मुकुट पर चढ़ शोभायमान होने से भी इन्कार करता है।
वह पुष्प बस एक सीधी सी इच्छा व्यक्त करता है कि - 
"मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!"
इन पंक्तियों में पुष्प की ऐसी अभिलाषा देखकर मैं और मेरा मन किस कदर खुद को छोटा महसूस कर रहे हैं, मैं बता नहीं सकता। हाँ लेकिन ये पुष्प ही है जिसकी इस अभिलाषा को देखकर मुझे पहली बार ये समझ आया कि मातृभूमि पर मर-मिटने वालों के प्रति सम्मान और समर्पण भी एक तरह से मातृभूमि का सम्मान ही है। वह पुष्प तो खुद को इस कदर समर्पित करता है कि भगवान के शीश-मुकुट और चरणों पर स्थान पाने की बजाय वह खुद को आप सब वीर जवानों के पैरों तले रौंदे जाने को ही स्वर्गप्राप्ति का आनंद समझता है। और मैंने तो इस हद तक के समर्पण को कभी विचारों में भी नहीं सोचा। आप लोग किस हद तक हमारे सम्मान के हकदार हैं, इस बारे में मेरी मानसिकता बस वहीं तक थी, जहाँ 15 अगस्त या 26 जनवरी के मौके पर "जय जवान या अमर जवान" के नारे लगवाए जाते हैं। इसी नारे के साथ मेरे दिमाग में ये बैठ गया कि देश के जवानों के प्रति मेरे दिल में भी उतना ही सम्मान है, जितना कि बाकी सभी को है। मैं बस मानता था कि हाँ मैं करता हूँ देश के जवानों का सम्मान, और उतना ही सम्मान जितना कि मैं अपने देश का सम्मान करता हूँ। पर आज "पुष्प की अभिलाषा" कविता पढ़ते हुए और पुष्प की ऐसी अभिलाषा देखकर मन में संदेह उत्पन्न हो गया - कि क्या वाकई मैं देश के वीर जवानों का सम्मान करता हूँ; और करता हूँ तो क्या ये सम्मान उस हद तक है जो पुष्प की अभिलाषा की समर्पित भावना में है। और सच कहता हूँ - इस संदेह के आगे मेरा मन मुझसे झूठ नहीं बोल पाया। नहीं बोल पाया कि हाँ मैं भी वीर जवानों के प्रति उतना ही समर्पित हो सकता हूँ जितना कि वह पुष्प। मैं आप सब वीर जवानों के आगे अपने मन की बस इसी व्यथा को जाहिर करने आया था। लेकिन आप लोग मेरे मन के संदेह को इस बात का प्रमाण मत समझिएगा कि मेरे मन में मेरे देश के वीर जवानों के प्रति सम्मान है ही नहीं। और इसी सम्मान को जाहिर करते हुए मैंने आप लोगों के नाम एक कविता भी लिखी थी। मैं नीचे वो कविता पेश कर रहा हूँ, और आप लोग भले इस कविता को अपने लिए सम्मान न समझिए, पर मेरा नमन जरूर स्वीकार कीजिए।

तो ये रही कविता -

"जय जवान अमर जवान!
टूट-टूट कर रखते देश को जोड़े 
ऐसे अपने वीर महान 
जय जवान अमर जवान!

मैं क्या गाथा सुनाऊँ इन वीर जवानों की,
इनके बलिदानों की
वो तो हर देशवासी की आँखों में,
बनकर देश का अभिमान रहते हैं 
वो जवान हैं 
न जाने कितना लड़ते हैं, 
कितना सहते हैं !

वो रात की जम्हाई को,
सुबह की उबासी तक रोक कर रखते हैं 
ऐसे वो खुद की पलकों से जंग करते हैं 
फिर खिलते सूरज के साथ,
वो अपनी उबासी में नई ऊर्जा भरते हैं
वो जवान हैं
रात की करवटों मेें नींद को ऐसे ही वश में करते हैं 
चिड़चिड़ाती धूप हो, 
तब भी छाँव कहाँ माँगते हैं 
वो बहते पसीने को प्रकृति का इत्र समझते हैं 
ठंड में जब ठिठुरे इनके हाँथ 
वो बस अग्नि को मित्र समझते हैं 
वो जवान हैं
खुद से लड़कर ही खुद को मजबूत समझते हैं !

माँ की तड़पन भूलकर 
देश की धड़कन याद रखते हैं 
घर वाली का दिल तोड़कर 
खुद का दिल मजबूत रखते हैं 
दोस्ती - यारी छोड़कर 
सरहद को ही अपना मयख़ाना समझते हैं 
बच्चों की खिलखिलाती हंसी को 
अपनी बाजुओं में समाए रखते हैं 
वो जवान हैं
ऐसे ही समर्पण की चरम सीमा सहते हैं 
तन से, मन से, दिल से, दिमाग से 
वो पहले खुद से लड़ते हैं 
और हम जानते हैं कि, 
खुद से लड़ना इतना आसान कहाँ होता है 
पर ये कैसे जाने
कि खुद से लड़ने के लिए भी न जाने कैसे,
वो खुद को इतना मजबूत कर लेते हैं !

वो जवान हैं
अपनी आवाज में शेर की दहाड़ रखते हैं 
दुश्मन के दिल दहल जाएँ 
ऐसी हुंकार भरते हैं 
देश के दुश्मनों के नाम पर
इनके अंदर हमेशा शोला धधकते हैं 
देश की आन-बान-शान को, 
वो अपने सिर-आँखों में रखते हैं 
उसके ऊपर दिमाग में,
हमेशा हिन्दुस्तान का नशा रखते हैं 
वो खड़े रहते हैं अडिग 
कहते हैं - जब आना हो आ जाए 
वो जवान हैं
अपनी जेब में ही मौत का पैगाम रखते हैं !

जवान...! क्या कहने 
सरहद की धूल को माथे का तिलक समझते हैं 
वर्दी को ग़ुरूर,
और कंधे पे लटकी बन्दूक को शान समझते हैं 
दुश्मनों से जंग को अभियान समझते हैं 
छाती में दगती गोली को, 
अपना स्वाभिमान समझते हैं 
देश के लिए मर - मिटने की भावना को, 
अपना आत्मबल समझते हैं 
हँसते - हँसते जान न्यौछावर करते 
वो फर्ज से पहले इसे प्यार समझते हैं 
उनके मजबूत इरादों के आगे डर क्या मायने रखता है 
वो जवान हैं, 
अपने डर को भी अपना शत्रु समझते हैं
हमारे लिए भले वो देश के रक्षक हों
लेकिन वो खुद को बस देश का सिपाही समझते हैं !

वो जवान... !
कितना कुछ करते हैं 
देश की रक्षा के लिए सरहद पर दिन-रात तैनात रहते हैं 
और बदले में क्या माँगते हैं.... 
बस इतना कि 
देशवासी देश को जोड़कर रक्खें
आपसी भाईचारे की भावना रक्खें
खुद को वैमनस्य और द्वेष से दूर रक्खें 
अखंड भारत की एकता को बनाए रक्खें 
और अंत में खुद के लिए बस इतना, 
कि देश के तिरंगे को ही उनका कफन रक्खें !

जय जवान अमर जवान!
जिनके नाम पर ये सीना चौड़ा होता है 
नमन करता हूँ मैं इन जवानों को 
सजदे में इनके सिर झुकाता हूँ 
मैं पुन: पुन: कोटि कोटि इन्हें प्रणाम करता हूँ !!"

पत्र लिखते हुए भी मैंने आप लोगों के सामने ये कविता रखी, तो आप लोग ये बिल्कुल मत समझिएगा कि मैंने ये प्रमाण देने की कोशिश की है कि मेरे मन में आप लोगों के प्रति कितना सम्मान है। क्योंकि सम्मान कितना भी हो, पर मेरे मन में बात वहीं आकर अटक जाती है कि मैं आप लोगों के सम्मान में किस हद तक समर्पित हो सकता हूँ। और पुष्प की अभिलाषा जानकर ये तो मैं जान ही गया हूँ कि समर्पण सम्मान की चरम सीमा है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार प्रेम में। वो प्रेम जो आपका आपके परिवार के प्रति है। वो प्रेम जो मेरा मेरे परिवार के प्रति है। वो प्रेम जो हम सब का हमारे देश के प्रति है। तो क्या ये प्रेम ही है जिसकी कमी के कारण मेरे मन में आप लोगों के प्रति सम्मान को लेकर संदेह उत्पन्न हो रहा है। हाँ शायद ये प्रेम ही है। 
वैसे मैं नहीं जानता मेरा प्रेम क्या है, कितना है; पर मुझे अब ये समझ आ रहा है कि ये आप लोगों का देश के प्रति प्रेम ही है, जो हम सब का शीश आप लोगों के सम्मान में अपने आप ही झुक जाता है। वो प्रेम जो समर्पण की चरम सीमा तक जाता है, वो प्रेम जो नि:स्वार्थ प्रेम की परिभाषा समझाता है। हाँ ये आप लोगों का प्रेम ही तो है, वरना ये जानते हुए भी कि जवान कहलाने की शर्त मौत ही है, और उस शर्त को भी अपना फर्ज समझ लेना, ये किसी के मात्र सम्मान में कहाँ सम्भव है। माना समर्पण सम्मान की चरम सीमा हो सकती है, पर समर्पण की चरम सीमा तो मात्र प्रेम में ही हो सकती है। और समर्पण की चरम सीमा जो आप लोगों ने देश के प्रति सिद्ध की है, कि हमें ये पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती कि आप लोगों को देश से कितना प्रेम है। और शायद हमें ये सवाल करना भी नहीं चाहिए; क्योंकि ये सवाल करने का हक हमें तो बनता ही नहीं है। क्योंकि हम जैसे लोग जो बस रोटी, कपड़ा, मकान की सुविधाओं और संघर्षों के बीच उलझे रहते हैं, शायद ये कभी नहीं समझ सकते कि एक सैनिक की ज़िन्दगी क्या होती है। वो जिन्दगी जो उसके अगाध प्रेम की है, देश के प्रति उसकी श्रद्धा की हैै। ऐसे में हम जो देश के नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को निभा लेना ही देश के प्रति खुद का प्रेम समझते हैं, कहाँ मातृभूमि के रक्षकों से देश के प्रति उनके प्रेम का प्रमाण पूछ सकते हैं। हम लोग तो बस बच्चे हैं इस देश के; देश के पूत, देश के बेटे कहलाने का सम्मान तो आप लोगों के हक में आया है। और वो भी गलत नहीं है; क्योंकि आप लोग ही हैं जो देश की आन-बान-शान तथा इसकी सुरक्षा के लिए हँसते-हँसते अपनी जान न्यौछावर कर देते हैं। जिस प्रेम में हम देश के दिए मूल अधिकारों को लेकर जीते हैं, उसी प्रेम में आप उन मूल अधिकारों से दूर रहकर अपने समर्पण का परिचय देते हैं;और उससे ऊपर ये कि आप लोग अपने परिवार तक से दूर रहते हैं। यही आपका प्रेम है।
और अंत में बस इतना कि आपका प्रेम और देश के प्रति श्रद्धा अगाध है। और आगे इस प्रेम के संदर्भ में मैं ये तो नहीं कहना चाहता हूँ कि देश के प्रति आपके प्रेम और हमारे प्रेम में अंतर है, पर ये निश्चित ही है कि आप लोगों का समर्पण अतुलनीय और सम्माननीय है।

                   _'इस देश का बच्चा और नागरिक'

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1 Comments
  • Unknown
    Unknown 15 जनवरी 2021 को 1:55 pm बजे

    बहुत खूब भाई ! जय हिंद 👌

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