"आईना - शक्ल दिखाने आए हो?" (कविता)
"शक्ल दिखाने आए हो
या देखने आए हो
या मिले हैं जो निशान जख़्म के
उन्हीं को अंदर तक झाँकने आए हो
या तुम्हारे नाम के भी कुछ गुनाह हैं
जो क़बूल करने आए हो
बताओ क्यूँ आए हो?
आखिर मुझ आईने की आज,
तुम्हें याद कैसे आई ?
क्या खो गईं हैं वो आँखें
जिनमें तुमने अपनी दुनिया देखी थी
या कोई और नहीं मिला तुम्हें,
जो खुद में तुम्हारा अक्स ढूँढता हो
और अपनी आँखों में शर्मिंदगी लिए
तुम अपनी इन्हीं आँखों का सामना करने आए हो
बताओ आखिर क्यूँ आए हो?
मुझ आईने को निखारने आए हो
या खुद को ही सँवारने आए हो
क्या बताऊँ कब से धूल फाँक रहा हूँ
बगैर तेरे कैसे मैं बेजान रहा हूँ
कोई नहीं था मुझमें अपना अक्स देखने वाला
बिन तेरे मैं कितना अधूरा रहा हूँ
अब बताओ, क्यूँ आए हो?
या बस ऐसे ही अपनी शक्ल दिखाने आए हो,
मेरी खैर खबर लेने आए हो
या फिर मुझमें अपनी पुरानी यादें झकझोरने आए हो
मैं तो वही का वही हूँ
क्या तुम अपनी नई शक्ल देखने आए हो?
छोड़ो! बात कुछ भी हो
मैं खुश हूँ, कम से कम तुम मेरे रूबरू तो आए
मैं मान लूँगा कि तुम मुझसे ही मिलने आए हो.."
"मैं उम्मीद करता हूँ कि आपको मेरी ये रचना पसन्द आई होगी!! "