कविता - "सोच"


"अपनी बातों के अल्हड़पन में
वो अपने जज्बातों के नन्हेंपन से रूबरू कराती है
अपनी हर इक अदा में
वो बा'अदब मासूमियत की झलकी दिखलाती है
हंसकर वो जब भी कहती कोई बात
मानो जैसे अपनी बातों से ही मनमानी करवाती है
और फिर उसे देख ये मन क्यूँ न मुस्कुराए
'दिल है छोटा सा', ये कहकर जब वो खूब ठिठलाती है ;

नासमझी के बालपन में
वो हमसे भी कई बचकानी हरकतें करवाती है
खुद को खुश रखने की कोशिशों में
'मैं खुश ही हूँ', कहकर ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा सिखलाती है
ज़िन्दगी जीने की जो शर्त है
उस शर्त को भी वो अपना फर्ज समझाती है
वो बहुत कुछ समझने वाली एक सोच सी है
अपने नजरिए से, जो खुद को नासमझ बतलाती है "
_'अंकित कुमार पंडा'
Thanks for reading 🙏🙏
"मैं उम्मीद करता हूँ कि आपको मेरी ये रचना पसन्द आई होगी!! "
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1 Comments
  • Rinku Mogare
    Rinku Mogare 7 मई 2020 को 9:05 pm बजे

    Lazawab my poetry bro.

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