मौसम के मिज़ाज में.. Love poetry

भाग-1 "मौसम के मिजाज में"

"मौसम के मिज़ाज में
सावन की बौछार पड़ी है
एक धुंधला सा चेहरा है सामने
जो बारिश की बूँदों के पार खड़ी है;

वो धुंधला चेहरा
जिसके हाँथ मुलायम उसकी छतरी बने हैं
बचाने खुद को इस बारिश से
वह सिर पर ओढ़े आँचल खड़ी है;

समेट खुद को आँचल में
जैसे वह सावन की महबूब बनी है
गिरी एक-एक बूँद जिस्म पे
जैसे ओस की बूँद पड़़ी है;

उसके जिस्म पे वो चंद पड़ी बूँदों को देख
बारिश की बाकी बूँदें रो पड़ी हैं
कहतीं - जो सावन भाए हर इक मन को
फिर वो काहे बचकर इतनी दूर खड़ी है;

ये बारिश की बूँदें, जो एक मकसद से गिरीं हैं
उसकी जुल्फों में रिस जाएं, इस चाहत में गिरीं हैं
उसकी आँखों से छलककर, गालों से गर्दन तक का जो सफर है
ये बूँदें बस खुद को इसी एहसास से गुजारने गिरीं हैं;

पर इन्हीं बूँदों में एक होड़ भी लगी है
जहाँ सारी चाहतें सिमटकर, एक ख़्वाहिश अधरों पर अड़ी है
उसके अधरों से स्पर्शीकरण का एक चुम्बन भरा एहसास करने ही
आज सावन की बौछार पड़ी है !!

वो जो घर से बेसुध, अल्हड़पन भरे अंदाज़ में निकली थी
उसकी खूबसूरती को देखकर ही सावन की ये चाहत उमड़ पड़ी है
पर न जाने उसकी ये चाहत कब पूरी होगी
क्योंकि जिसकी चाहत है, वो तो सावन की बौछार से बच कहीं दूर खड़ी है;

बस हुआ, सावन कुछ यूँ बेताब हुआ
सावन भी कह उठा - महबूब से मिलने का बहुत इंतज़ार हुआ
तड़प थी, फिजाओं में ऐसे ही नहीं सावन का शोर हुआ
संग उसके नाचने को देखो ये सावन कैसे मोर हुआ;

उस महबूब की इस रुसवाई को देखकर
वो काली घटाएं रोती-बिलखती आँखें बन आईं हैं
अब जो सहारा बारिश की बूँदों का था,
वो आँसू बनकर, सावन का दुखड़ा गान पड़ीं हैं;

अब बारिश की बूँदों के बस के बाहर
तो रुख हवाओं का उस ओर हुआ
अब तो ये बात उससे मिलन की
सावन कहे मेरी जिद पे आन पड़ी है 

वो खड़ी जिधर हवा उस ओर मुड़ी है
मिलने उस महबूब से बौछार अब उड़ पड़ी है
पर दरकिनार कर खुद को इस कदर
वह इन रुख बदली हवाओं से भी दूर खड़ी है;

बेचारा सावन और उसकी बारिश
जिसे बेबस देख घटाओं में भी उदासी छाई है
यहाँ जमीं पर धरासाई बूँदें
जैसे तड़पन उनकी बेबस उदासीन पड़ी है;

पर मुझसे ज्यादा ये तड़प कहाँ सावन की होगी
क्योंकि सावन की बेताबी तो उसे देखकर बढ़ी है
पर मेरे लिए तो अब भी,
उस चेहरे की तस्वीर धुंधली पड़ी है;

खैर, अब न सावन को मेरी पड़ी है
और न मुझे सावन की पड़ी है
बस एक खुमार सा चढ़ा है उसका
जो इन सब से बेख़बर अब भी वहीं दूर खड़ी है;

यहाँ दूर खड़ा मैं एकटक
मेरी नजर बस उस पर ही गड़ी है
पर ये मौसम की बारिश इस कदर
जैसे दरमियाँ कोई चादर पड़ी है;

अब ये चादर न जाने कब उठेगी
इस इंतज़ार में ही मेरी बेताबी बढ़ी है
एक धुंधला सा चेहरा है सामने
जो बारिश की बूँदों के पार खड़ी है !!

सोचता हूँ मेरे पास ही काश वो छतरी होती
जो काटती बारिश की बूँदों को, ऐसी तलवार होती
खुद सावन की बौछार की मार से बच
मेरी उससे मिलने की ये आसान शुरुआत होती

पर रख किनारे इस बात को
मेरी चाहत तब और उमड़ पड़ी है
जब उसकी पायल की छनछन में नाच उठी बूँदें
झूम उठा पूरा सावन ये, जैसे कोई ताल पड़ी है;

आखिर कब तक, इतनी देर में उसका भी मन भरमा गया
सावन की बारिश में अब तक तो उसका भी दिल आ गया
दिल आया, तो कुछ चंचलाई मुस्कुराई मन - मुखड़े के साथ
वह बारिश की बूँदों में अब भीगने खड़ी है;

इधर खड़ा तन्हा, हुआ मैं और बेताब
न जाने किस बात की अटकी पड़ी है
उधर जमीं पर बेजान पड़ी उदासीन बूँदें
अब तो वो भी नाच उठीं हैं;

उसका यूँ बादलों के साय में भीगना
इस मौसम को जैसे बहार-ए-इश्क़ कर गया
और इस इश्क़ में फ़ना ये सावन
जैसे बहार-ए-मौसम को गुलजार कर गया;

अब यूँ हुआ कि ये मौसम गुलजार यूँ ही नहीं हुआ
सावन मदहोश और ये इश्क़ यूँ ही नहीं हुआ
उधर उस महबूब की पंखुड़ी होंठ की खिली मुस्कान देखो
समझ आ जायेगा कि ये दिल दिवाना यूँ ही नहीं हुआ;

खैर हुआ, ये सब कुछ हुआ
जब सावन की बौछार तले आकर उसका भीगना हुआ
उसे भीगता देख ये दिल की धड़कनों को भी क्या हुआ
जहाँ - तहाँ बेताबी थी, अब जैसे कोई तान पड़ी है

ये तो उसकी खूबसूरती का राग था छिड़ा
तभी जाकर दिल पे ऐसी तान पड़ी है
पर उसे सावन की आगोश में पाकर, दिल के कोने में कहीं दर्द भी उठा
जैसे ये,  मेरे लिए कोई सजा कड़ी है !!

अब लगा कि कुछ कर बैठूँ
सावन की आगोश में उसे भीगता देख,
बारिश की बूँदों से जंग कर बैठूँ
हाँ अब लगा कि सावन से अपना बैर कर बैठूँ....."

[ आगे का पढ़ने के लिए भाग-2 का इन्तजार करें... धन्यवाद! ]
_'अंकित कुमार पंडा'
  बाँदा, उत्तर प्रदेश

Thanks for reading
"मैं उम्मीद करता हूँ कि आपको मेरी ये रचना पसन्द आई होगी!! "


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1 Comments
  • Unknown
    Unknown 15 अक्तूबर 2019 को 10:17 pm बजे

    Bhag 2 jaldi likhna

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