बुरके वाली लड़की (सफ़रनामा)/ Burke Wali Ladki


"आज बेवक्त सी मोहब्बत लिए बैठा हूँ 
 जो साथ चल रहा, उसे हमसफ़र किए बैठा हूँ "


आज पता नहीं मुझे क्या हो गया हैमैं ट्रेन की किसी एक बोगी में किसी खिड़की वाली सीट पे बैठा उस आसमां के चाँद को लगातार बस देखे ही जा रहा हूँ। मेरी नजरें पल भर के लिए भी उस चाँद से हटती नहीं हैं; और न ही हटना चाहतीं हैं ट्रेन अपनी गति से चलायमान है, और मैं बस उस आसमां के चाँद को ही निहार रहा हूँ; और इस कदर निहार रहा हूँ कि निहारते - निहारते मेरी आँखें बस रम सी गईं हैं मुझे नहीं पता कि आज मुझे क्या हो गया है; पर आज वो चाँद मुझे इतना खूबसूरत नजर आ रहा है कि दुनिया की सारी खूबसूरती भी उसके आगे फीकी लग रही है। जबकि आज से पहले कभी ऐसा हुआ ही नहीं कि मैंने उस चाँद की ओर कभी ध्यान से देखा भी हो या उसकी खूबसूरती का जिक्र किया हो। नहीं, ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ न जाने क्यूँ पर आज मैं बस उसी चाँद को देख रहा हूँ, उसे निहार रहा हूँ। इसके अलावा मैं कुछ कह या बता नहीं सकता कि मैं उस चाँद को लेकर क्या महसूस कर रहा हूँ मैं तो बस खिड़की पे सिर टिकाए, नजरें ऊपर उठाए, मदमस्त हो उस चाँद को ही देेेेखते रहना चाहता हूँ, और देख ही रहा हूँ। खुली खिड़की से बाहर झाँकती मेरी नजरें लगातार बस उसी चाँँद पर टिकी हुईं हैं वो चाँद जिसकी रौशनी तले पूरा का पूरा आसमां भी जगमगा सा उठा है। उसकी चाँदनी की छटा भी इस कदर बिखरी हुई है कि पूरे आसमां में जैसे रूमानियत छा गई हो। और शायद ये रूमानियत ही थी जिसकी वजह से चाँद के प्रति मेरे हृदय में ऐसा अनुराग उत्पन्न हुआ कि उसने मेरी नजरों को बाँध कर रख लिया है उस चाँद की चाँदनी न केवल रौशनीपूूूूर्ण अपितु शीतल भी है; और ये चाँद की शीतलता ही है जो मेरी आँखों में समा इन आँखों को भी उतना ही शीतल कर रही है; और शायद इसलिए भी चाँद को निहारना मेरी आँखों को बड़ा भा रहा है
ट्रेन के इस सफ़र में मैंने उस चाँद को ही अपना हमसफ़र मान रक्खा है मुझे ऐसा लग रहा है कि जैसे उस चाँद के साथ मैं किसी अलग ही दुनिया में खो गया हूँ वो दुनिया - जिसमें ये सफ़र है, मैं हूँ, वो चाँद है, खिड़की से आती ठंडी मंद - मंद हवा है जो जिस्म की रोम - रोम को सहला रही है और गुदगुदी कर रही है, और इस गुदगुदे एहसास से होंठों पे खिली हल्की सी मुस्कान है आज तो बस यही सफ़र है मेरा, और ये अलग दुनिया का एहसास मेरे सफ़र का रस और सच कहूँ तो वास्तव में यही ही सफ़र है; वरना ट्रेन तो हमारे सफ़र का रास्ता तय करके हमें हमारी मंजिल तक पहुँचा ही देती है ट्रेन की इस मुसाफ़िरी में ट्रेन का फर्ज बस इतना ही होता है कि वह अपने हर एक पड़ाव को पार करके सबको सुरक्षित उन्हें उनकी मंजिल तक पहुँचा दे बाकी सफ़र का आनन्द किस तरह से लेना है, उस सफ़र का लुत्फ कैसे उठाना है, वह तो हमारे ऊपर ही है हमारा मन ही इस सफ़र को साक्षात्कार करता है पर अमूूूमन हमारा सफ़र तो हम जैसे ही लोगों की बातों व शोरगुल में तय होता है, जिसमें कुछ चेहरे सफ़र के बीच में ही छूट जाते हैं तो कुछ नए चेहरे देखने को मिलते हैं, और कुछ सफ़र की शुरुआत से लेकर हमारी मंजिल की छोर तक साथ बने रहते हैं ट्रेन के इस छोटे से सफ़र में, होने को तो मेरा सफर भी ऐसा सामान्य ही रहता है; पर आज..., आज बात अलग है; क्योंकि उस चाँद के आगे न मुझे लोगों के चेहरे दिखाई पड़ रहें हैं, न उनकी कोई बातें सुनाई पड़ रहीं हैं, और न ही कोई शोरगुल समझ आ रहा है आज तो बस यही सफ़र है मेरा - जिसमें मैं हूँ, वो चाँद है, ठंडी ठंडी मंद हवा, और वही.. होंठों पे खिली हलकी सी मदमस्त खुशनुमा मुस्कान
खिड़की पे बैठा, टकटकी लगाए उस आसमां के चाँद को देखते हुए ये सब मन में सोच ही रहा होता हूँ कि ट्रेन की हॉर्न की आवाज आती है ट्रेन की हॉर्न की आवाज अचानक सुनकर मैं उन ख़्यालों से बाहर आ जाता हूँ जिसमें मैं अपने और उस चाँद की दुनिया के सफ़रनामे का ज़िक्र कर रहा था मैं मन ही मन ट्रेन की मुसाफ़िरी के असली आनन्द और रस का दर्शनशास्त्र बखान कर रहा था पर जानकर कि 'बस मन में ही', मेरे होंठों पे वही हल्की सी मुस्कान दौड़ गई जो चाँद को देखते वक्त थी वैसे यहाँ मेरे मुस्कुराने की एक वजह ये भी है कि मैं अपने सफर के वक्तव्य को दर्शनशास्त्र कह रहा था अब मुझमें इतना ज्ञान थोड़े है कि मैं किसी भी विषय पे समझी गई या एहसास की हुई बातों का दर्शन-ज्ञान दे सकूँ वैसे भी किसी भी मुसाफ़िरी में उस सफ़र का आनन्द लेना, उस सफ़र का लुत्फ उठाना तो लोगों की व्यवहारिकता और मानसिकता पर निर्भर करता है। किसी को सफ़र का मजा अकेले में आता है, तो किसी को सबके साथ किसी को नए लोगों से बातें करते हुए सफ़र का मजा उठाने में मजा आता है तो किसी - किसी को किताबें पढ़ते हुए या गाने सुनते हुए ऐसे ही सबकी अपनी अपनी वजह हैंऔर आज मेरे सफ़र में वो चाँद था जो यह वजह बना हुआ था, और जो इस सफ़र को सुहावना बना रहा था बहरहाल, इन सब बातों से ध्यान गया तो मैंने पाया कि जिस चाँद को मैं लगातार देख रहा था, अचानक वो चाँद मुझे दिखता और गायब होता नजर आया. जैसे ही वो चाँद मेरे आँखों से ओझल होता, मेरी आँखें उसे देखने को छटपटाने लगती कि कहाँ गया वो चाँद, कहाँ गया? उस चाँद के गायब होने पर मुझे वैसा ही लगता मानो जैसे किसी खेलते हुए बच्चे से किसी ने उसका खिलौना छीन लिया हो वो चाँद बस दिखता और गायब होता नजर आ रहा था पर जल्द ही वो चाँद गायब होते - होते पूरा गायब हो गया मेरी नजरें कुलबुलाने लगीं नजरें घूम- घूमकर आसमांं में ढूँढने लगीं कि आखिर कहाँ गायब हो गया वो चाँद? पर जब नजरें ठहरीं, पलकें झुकीं तो पाया कि ट्रेन इस छोटे से सफ़र के किसी पड़ाव(स्टेशन) पर आकर ठहरी हुई थी मैं अब और तो कुछ कर नहीं सकता था सिवाय इन्तजार के, सो इन्तजार किया इस इन्तजार के साथ ही अब मेरे सफ़र का मंजर कुछ वक्त के लिए बदल चुका था जहाँ पहले मुझे न लोग दिखाई पड़ रहे थे, न उनकी बातें सुनाई पड़ रहीं थीं, और न ही कोई शोरगुल समझ आ रहा था, अब वो सब झूठ हो चुका था इन्तजार की इस घड़ी में मैंने न केवल लोगों के चेहरे देखे बल्कि ये भी देखा कि कौन बच्चे हैं, कौन बुजुर्ग हैं, कौन - कौन पुरुष हैं और कौन -कौन महिलाएँ ऐसे ही मुझे उन सब लोगों की घुली - मिली बातों का शोरगुल भी समझ आया और स्टेशन की चिल्लम -चिली का सुर भी सुनाई दिया बस अब तो मैं इन्तजार कर रहा था कि जल्द से जल्द मुझे उस चाँद के दीदार हो सफर के उस सुहावनेपन भरे एहसास के आगे मुझे ये स्टेशन का पड़ाव बिल्कुल रास न आया रास तो दूर की बात, ये स्टेशन तो मेरे और उस चाँद के बीच खड़ी करता दीवार सा साबित हुआ जिसे मैं तोड़ना चाह रहा था पर सच तो यही है कि मैं कुछ कर नहीं सकता था, सिवाय इन्तजार के, जो मैं कर रहा था आगे इन्तजार इतना लम्बा नहीं था। गाड़ी के हॉर्न की आवाज आई तो मैं समझ गया कि अब गाड़ी आगे अपनी मंजिल की ओर प्रस्थान करेगी। पर मैं इस बात से ज्यादा खुश था कि चलो हास! अब चाँद के दीदार होंगे, न कि अपनी मंजिल तक पहुँचने के एहसास से
चाँद...,'देखो चाँद आया, चाँद नजर आया...' जैसेे ही गाड़ी ने स्टेशन छोड़ी, मेरा वो चाँद मेरी नजरों के सामने था और दिल ऐसा ही एक गीत सा गुनगुना बैठा; जो ये बात साबित कर सकता था कि उस चाँद को दोबारा देखकर मैं कितना खुश था ऐसा नहीं था कि सिर्फ मैं ही था जो चाँद से इतना बँध सा गया था; मुझे लगता है कि वो चाँद भी मुझसे उतना ही बँध गया था, उतना ही जुड़ गया था जितना कि मैं और मेरी आँखें उससे जुड़ी थीं। देखो तो पहले उस चाँद को, कैसे वह खुद भी मेरे सफ़र का हमसफ़र बना हुआ है, कैसे मेरे साथ - साथ चल रहा है जैसे ही ये ट्रेन रुकती है, मैं रुकता हूँ तो वो चाँद भी रुक जाता है; और जैसे ही मैं चलता हूँ, वो भी चल देता है, बिल्कुल मेरे साथ - साथ, उतनी ही गति से। सफ़र फिर चल पड़ा था और चाँद भी बिल्कुल मेरे रुबरु था; तो मैं चाँद के साथ फिर उसी दुनिया में खो गया जिसमें मैं था, चाँद था, खिड़की से आती ठंडी मंद हवा और वही.. हल्की सी मुस्कान इसी मुस्कान के साथ मैं अब उस दुनिया में जा चुका था जो कहीं न कहीं ख़्यालों की थी मेरी नजरें बस उसी चाँद को निहार रहीं थीं जो मेरे इन ख़्यालों की अनचाही वजह बन चुका था 

"आज बेख़्याली ही ख़्याल आता है,
  चाँद में इतना नूर कहाँ से आता है "

चाँद को देखकर कैसे कैसे ख़्याल आते हैं न? जैसे अपनी ही एक अलग दुनिया का उगता हुआ सूरज हो जिसमें एक खूबसूरत एहसास भरे दिन की शुरुआत बसी हो मानो। ऐसे ही एक खूबसूरत एहसास भरे दिन की शुरुआत जैसी कहानी आज मुझे भी महसूस हुई। बस फर्क इतना है कि यहाँ मेरा चाँद एक चेहरा था। वो चेहरा जो इस पूरे व्याख्यान की वजह है, केन्द्र है यहाँ तक कि अब तक मैं जिस चाँद की खूबसूरती का ज़िक्र कर रहा था, जिस चाँद को निहार रहा था, उसकी वजह भी ये चेहरा ही था मैंने भी इस सफ़र में अपनी एक अलग दुनिया महसूस की, जिसमें ये चेहरा मुझे उसी उगते हुए सूरज के नजारे जैसा लगा; और मेरा एहसास जैसे एक खूबसूरत दिन की शुरुआत। और ये शुरुआत ही वो वजह थी जो मेरे पूरे सफ़र को सुहावनेपन की गोद में भर रही थी। मेरे इस सफ़र के एहसास में इस चाँद, इस चेहरे की मौजुदगी बड़ी दिलचस्प है; क्योंकि ये चेहरा अंत तक किसी नाकाब के पीछे छुपा रहा जिसमें इस चेहरे की पहचान भी छिपी रह गई। साफतौर पर यहाँ चेहरा एक बुरके वाली लड़की का था, जिस पर उस बुरके वाली लड़की ने पर्दा कर रक्खा था और चेहरे के नाम पर सिर्फ उसकी आँखें थीं जिसे वो पर्दा नहीं कर सकती थी। और सच कहूँ तो बुरके के आँचल में छुपी उसकी छबि कैसी होगी, ये मैं कल्पना ही कर सकता था; क्योंकि उसकी आँखें इतनी खूबसूरत थी कि उसके रूप का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक ही बनता है हाँ, उसकी आँखें इतनी सुन्दर थी कि आप अवश्य ही ये अनुमान कर सकते थे कि उसकी आँखों की भाँति उसके रूप में भी उतना ही सौन्दर्य होगा, और उसका सौन्दर्य उसके पूरे स्वरूप का बखान करता पर यह सब बस कल्पनामात्र ही था, क्योंकि वो बस उसकी आँखें ही तो थी जिसे वो नजरबंद न कर सकती थी हाँ ये अवश्य है कि वो अपनी पलकों को झुका उन आँखों के दीदार के लिए हमको तड़पा जरूर सकती थी। अगर मैं उस बुरके वाली लड़की की आँखों की बात करूँ, तो मुझे यही लगा कि उसकी आँखें जैसे उसके दिल का दर्पण थीं जिसमें उसकी सादगी और मासूमियत से भरी सीरत साफ - साफ झलकाई दे रही थी। अब क्या बताएं यह दृश्य बस मेरी उस व्यथा का है जिस व्यथा की वजह ये खूबसूरत आँखें हैं यकीनन वह मेरे इस व्यथाजनित सफर में शामिल है, क्योंकि वह मेरी इस व्यथा की वजह जो है पर वास्तव में तो वह अनजान है इन सब से कि कोई उसकी खूबसूरती को आँक रहा है और ट्रेन में उन सब चेहरों के बीच एक चेहरा जो मेरा है, पता नहीं इस पूरे सफर के दौरान उसने इस चेहरे को देखा भी है कि नहीं खैर बढ़ते हैं मेरे इस ट्रेन के सफ़र की शुरुआत की ओर, और साथ ही मेरी उस व्यथा की ओर जिसकी ये पूरी व्याख्यान है

"बनारस से चलकर जौनपुर, अकबरपुर और फैजाबाद के रास्ते लखनऊ को जाने वाली पटना - कोटा एक्सप्रेस गाड़ी प्लेटफार्म नम्बर फलां में आ रही है", स्टेशन पहुँचा ही था कि ये एनाउंसमेंट बड़ी ही स्पष्टता के साथ मेरे कानों को सुनने को मिली। एनाउंसमेंट सुनते ही स्टेशन आने के लिए जो शीघ्रता मेरे मन में थी, वो अब मेरे कदमों में भी देखने को मिली; क्योंकि मुझे भी लखनऊ ही जाना था और यह वही गाड़ी थी जिसमें मुझे जाना था फिर दाएँ देखा न बाएँ, सामने एस्केलेटर था सो चढ़ गया उसपे ऊपर चढ़ती उन यान्त्रिक सीढ़ियों की गति मुझे कम लगी तो मैंने अपने कदमों को भी गति दे दी; और ऊपर चढ़ती उन सीढ़ियों में मैं खुद भी आगे बढ़ने लगा। ऐसे में ऊपर चलकर जो सीढ़ियाँ खत्म होने वाली थीं, मेरे कदमों ने उन्हें और जल्दी खत्म कर दिया। सीढ़ियाँ जैसे ही खत्म हुईं और जमीं समतल हुई तो मुझे अचानक याद आया - 'अरे! टिकट लेना तो रह ही गया'। गाड़ी के आने की एनाउंसमेंट क्या सुनी, मैं तो जल्दी - जल्दी में टिकट लेना ही भूल गया पहले तो मेरे मन में उधेड़बुन हुआ - 'कि टिकट लूँ कि न लूँ, लूँ कि न लूँ' फिर सोचा टिकट लेना ही सही होगा। ऐसा नहीं था कि मेरे मन में आया हो कि टिकट न लेना बेईमानी होगी और मैं अपनी ईमानदारी दिखाना चाहता था वो तो बस एक डर था कि कहीं बिना टिकट पकड़ा गया तो लम्बे से ठुक जाऊँगा; बस इसीलिए मैंने टिकट लेना ही मुनासिब समझा वैसे भी मैंने कई बार सुना और देखा है - 'जब लोग बिना टिकट पकड़े जाते हैं तो यही कहते हुए पाए जाते हैं कि अब तक टिकट लेके सफ़र कर रहे थे तो कभी नहीं मिले और आज जब किसी वजह से टिकट नहीं ले पाए तो पता नहीं कौन यमदूत भेज दिया' खैर! मैंने चांस नहीं लिया और दूसरी तरफ से सीढ़ियाँ उतरकर(ये सीढ़ियाँ यान्त्रिक सीढ़ियाँ नहीं थीं) टिकट लेने के लिए जल्दी से टिकट काउंटर के लिए दौड़ गया; बगैर इस बात की परवाह किए कि कहीं गाड़ी न छूट जाए मैं टिकट काउंटर की लाइन पे खड़ा जब तक टिकट ले रहा था, 'पटना - कोटा एक्सप्रेस' गाड़ी की एनाउंसमेंट 'आ रही' से 'आ चुकी' में हो रही थी; मतलब कि गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म पर आ चुकी थी वैसे तो उस दिन की और भी गाड़ियाँ थीं लखनऊ तक जाने वाली; पर एक होता है न मन में कि जितना जल्दी पहुँच जाए उतना अच्छा और मैं भी यही चाहता था कि कुछ भी हो जाए पर ये गाड़ी न छूटे खैर! इन सब सोच के बीच अब टिकट मेरे हाँथ में था, और प्लेटफ़ॉर्म नम्बर मेरे दिमाग पे सो जितनी जल्दी हो सकता था उतनी जल्दी पहुँच गया प्लेटफ़ॉर्म पे। गाड़ी को उसके निश्चित प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी देखकर मन को थोड़ी शान्ति मिली, लेकिन पैरों को आराम बिल्कुल नहीं मिला; क्योंकि असली जंग तो अभी बाकी थी न, और वो जंग थी एक सीट का मिल जाना ताकि पूरा सफ़र आराम से कट सके वैसे एक बात बताना चाहूँगा कि इससे पहले भी तीन बार मैं इसी गाड़ी से यात्रा कर चुका हूँ; और मैंने देखा है कि आमतौर पर इस गाड़ी में भीड़ रहती ही है कभी - कभी तो इतनी भीड़ उमड़ पड़ती है कि खड़े रहने की जगह मिलना भी दूभर हो जाता है। पर आज आप इत्तेफ़ाकन ही कहिए या क़िस्मत कह लीजिए, वो गाड़ी मुझे होने वाली एक सुखद यात्रा का परिचय करा रही थी वैसे भी हम जनरल डिब्बों में यात्रा करने वालों के लिए ये किसी जंग से कम नहीं होता कि खचाखच भरी पड़ी भीड़ वाले डिब्बे में जबरदस्ती खुद को ठेंसना पड़े ऐसे में प्राय: भीड़ जुटाकर लाने वाली गाड़ियों में एक सीट का मिल जाना तो ऐसा ही है जैसे भगवान ने हमारी प्रार्थना ही सुन ली हो और आज तो मेरी भी प्रार्थना क़बूल हो चली थी; क्योंकि मुझे आख़िरकार वो एक सीट मिल चुकी थी अब सीट तो मिल चुकी थी पर खिड़की वाली सीट पर बैठने की जो चाहत होती है, मेरी उस चाहत की भी लालसा बढ़ रही थी मैं चाहता था कि बस अब ये खिड़की वाली सीट भी मिल जाए बैठने को तो क्या बात हो अब क्या करे वो चाहत होती ही ऐसी है कि ये चाहत पूरी न हो तो सफ़र अधूरा सा लगता है आप लोग तो जानते ही होंगे कि खिड़की के पास बैठकर सफ़र करने में जो सुख मिलता है, जो आनन्द प्राप्त होता है, वह कुछ अलग ही किस्म का होता है जिसे न समझाया जा सकता है, न बताया जा सकता है वह सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। वैसे तो मेरी एक चाहत जो एक सीट की थी, वो तो पूरी हो ही चुकी थी; पर मैं उस खिड़की के पास बैठने का सुख भी महसूस करना चाहता था; और जितनी बार मौका मिलता है या मिलेगा, उतनी बार महसूस करना चाहूँगा अब बताईये भला आप ट्रेन का सफ़र कर रहे और खिड़की वाली सीट पे बैठने की ख़्वाहिश न की तो फिर क्या चाहा आपने मेरे लिए तो वह खिड़की वाली सीट प्रकृति को महसूस करने की ख़्वाहिश मात्र है। खैर ! छोड़िए 
अन्ततः अब मैं अपनी सीट पर बैठ चुका था। और मैं जिस सीट पर बैठा था उसपे मुझे मिलाके कुल पाँच यात्री बैठे थे। मेरे दाहिने ओर दो सहयात्री, मेरे बाहिने ओर भी दो सहयात्री, और सामने की सीट पर सिर्फ़ चार पर मेरी नजर सिर्फ़ बाईं ओर बैठे दो सहयात्रियों पर थी; क्योंकि खिड़की वाली सीट वहीं बाईं ओर ही थी। सो, मैं बस इतना चाह रहा था कि ये दोनों जल्द से जल्द उतर जाएँ ताकि मैं वहाँ खिड़की वाली सीट पे जा खिसकूँ और ऐसा ही आगे हुआ भी। वो दो सज्जन पहली स्टॉप पर ही उतर गए और मैं सीधे जा खिसका खिड़की वाली सीट पर। खिड़की वाली सीट क्या मिली, फिर मैंने अपने आप को जो फैलाया कि क्या कहने; मतलब अब तो कुछ हो जाए, हमसे ये सीट कोई नहीं छीन सकता वैसे तो खिड़की वाली सीट पर बैठने के लिए मुझे कोई जंग नहीं लड़नी थी, और न ही जंग लड़नी पड़ी; पर खिड़की वाली सीट पे बैठकर मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे कि मैंने कोई किला ही जीत लिया हो। 'खिड़की वाली सीट पर बैठकर बाहर के प्रकृति की मनोरम हरियाली देखना, खिड़की से फसलों को छूकर आने वाली और मिट्टी की सौंधी खुशबू लिए हवा को सांस में उतारना', मेरा तो ये ख़्याल करने मात्र से ही मन तृप्त हो चला था मैंने कहा - 'वाह! अब तो मजा ही आ गया' मैं अपने खुशमिजाज़ रौब के साथ नजरें खिड़की पे डाले बैठा था। ट्रेन अभी तक चली नहीं थी, सो मैंने अपने मोबाइल पे टाइम देखा कि कितनी देर है अभी टाइम देखने के बाद मैंने अपना मोबाइल सीधा खिड़की पे टिका दिया जिसकी काली स्क्रीन पर पश्चिम में डूब चुका लगभग आधे सूरज की बड़ी ही आकर्षक छबि देखने को मिली. वो आधे सूरज का डूबता दृश्य इतना सुन्दर और खूबसूरत लग रहा था कि वह किसी आलौकिक दृश्य से कम नहीं था। आसमां का रंग भी उसके रंग में रंग चुका था और वो दृश्य वाकई बहुत खूबसूरत और सुनहरा था। पर वो दृश्य कुछ ज्यादा देर नहीं रहा; क्योंकि वो लगभग आधा डूब चुका सूरज जल्द ही पूर्ण अस्त हो चला था। यहाँ गाड़ी की हॉर्न की आवाज भी यह संकेत दे चुकी थी कि गाड़ी अब आगे अपने गन्तव्य स्थान तक जाने के लिए रवाना होगी; इसीलिए मैंने अपना मोबाइल वापस खींच लिया। क्या मालूम खिड़की से नीचे गिर जाता तो ? नुकसान हो जाता न, इसीलिए
हवा की रवानगी के साथ ट्रेन अब चल पड़ी थी। उधर सूरज भी पूर्ण अस्त हो गया था। यहाँ जैसे ही सूरज पूर्ण अस्त हुआ, मुझे मेरे रुबरु वो चाँद नजर आ गया वो चाँद जो वही चेहरा था जिसकी ये पूरी व्याख्यान है। मैंने देखा कि वो पूर्णतया बा-अदब काले लिबास से ढकी हुई थी जिसे मुस्लिमी लिहाज में शायद बुरका कहते हैं या बुरका ही कहते हैं उसने अपने सिर के ऊपर हिजाब पहन रक्खा था जो उसके चेहरे को भी पूरा ढके हुए था। उसके साथ एक महिला और थीं जो शायद उसकी अम्मी हो सकती थीं, या कोई और भी लेकिन मुझे यही लगा कि वो अम्मी ही होंगी वो महिला हमारी वाली सीट पर सबसे किनारे दाहिने ओर बैठ गईं। जबकि वो बुरके वाली लड़की सामने की सीट पर बिल्कुल अपनी अम्मी के सामने। मैं बता दूँ कि मैंने शुरू से अंत तक उसका चेहरा नहीं देखा जो हिजाब के पीछे था पर वो हिजाब के पीछे अपनी आँखें नजरबंद नहीं कर सकती थी, और इस चेहरे की कहानी बस इन्हीं आँखों से शुरू होकर मेरी आँखों में खत्म हो जाती है जो उस आसमां के चाँद को निहारते नहीं थकतीं। उसकी आँखें इतनी खूबसूरत थी, इतनी खूबसूरत थी कि हम न चाहें तब भी वो आँखें अापको अपनी तरफ खींच सकती हैं और आप खिंचे चले जाएँगे। उसकी आँखें हल्की नीली थी जो बिल्कुल ऐसी लग रहीं थीं कि जैसे किसी विशाल समुद्र में नीले आसमान की प्रतिछाया समा गई हो। उसकी आँखों का द्रव्य उसकी आँखों की चमक को यूँ बढ़ा रहा था कि न चाहकर भी मेरा ध्यान उसकी आँखों पर जा रहा था। उसकी उन आँखों की चमक और खूबसूरती ने मुझे बाँध सा लिया था मैं रह - रहकर बस उसकी आँखों को ही देख रहा था उसकी आँखों में समाई सारी खूबसूरती ने मेरे दिल में अजीब सा एहसास भर दिया था जो आज से पहले मैंने कभी महसूस नहीं किया था पता नहीं ऐसा कैसा एहसास था, पर जो भी था मुझे अच्छा लग रहा था; मानो जैसे कोई सुकून सा पहुँच रहा हो अंदर। उसकी उन खूबसूरत आँखों में कुछ तो ख़ासियत थी वरना ऐसे ही थोड़े न कोई किसी को सुकून दे सकता है मैं आश्चर्य था इस बात पे कि जो एहसास मैं महसूस कर रहा था, वो मैं चाह नहीं रहा था, वो बस मुझे हो रहा था पर मुझे ये कतई मालूम न था कि होते - होते वो एहसास इतना प्रगाढ़ हो जाएगा कि मेरे अंदर चाहतें और ख्वाहिशें भी उमड़ पडेंगी, जो मुझे उस बुरके वाली लड़की से बाँधे रखने की पुरजोर कोशिश करेंगी कोशिशों के आयाम में इसी तरह उस एहसास ने मेरी चाहतें और बढ़ा दी थीं कहा - जिसकी आँखें ही इतनी सुन्दर हो, उसके सूरत की ख़ूबसूरती कितनी नायाब होगी ये उसकी आँखें ही तो थी जो मुझे मेरी कल्पना शक्ति पर जोर देने के लिए मजबूर कर रहीं थीं उसकी आँखों की ख़ूबसूरती ही ऐसी थी कि उसके रूप के स्वरूप का सौन्दर्यबोध स्वाभाविक ही बनता है पर मैं चाहकर भी अपनी कल्पना - शक्ति से उसके रूप की कल्पना नहीं करना चाहता था; क्योंकि कुदरत की उस रचना के आगे मैं अपनी कल्पना शक्ति में उसके रूप की ख़ूबसूरती को जरा भी कम नहीं करना चाहता था और मैं जानता हूँ कुदरत से बड़ा चित्रकार, कुदरत से बड़ा कारीगर कोई नहीं है; ऐसे में कुदरत की इस चित्रकारी और उसकी नायाब ख़ूबसूरती पर दाग लगाने की हिमाकत मैं तो करना ही नहीं चाहता था उसकी उन खूबसूरत आँखों के बारे में क्या कहूँ, कैसे कहूँ, क्योंकि शब्दों के जरिए मैं उसकी आँखों की नायाब खूबसूरती को जरा भी बयां कर सकूँ या उस खूबसूरती का जरा भी एहसास करा सकूँ, ये तो मेरे लिए यकीनन असम्भव ही था। मेरा बस चलता तो मैं हूबहू उसकी आँखों को ही यहाँ उतार देता, फिर न कुछ बताने की जरूरत पड़ती और न ही कुछ जताने या एहसास कराने की, वो आँखें स्वयं ही अपनी खूबसूरती का परिमाण देतीं। पर मुझमें तो ये काबिलियत भी न थी। उसकी आँखें बस मुझे मोह रहीं थीं। इसके अलावा और मैं क्या बताऊँ? बस जान लीजिए कि ये कहानी बस मेरे इसी व्यथा की है, जिसकी वजह ये बुरके वाली लड़की है कहानी जो बस किस्सा बनकर रह गया, गुजरे इस छोटे से सफ़र का फ़साना बनकर रह गया तो चलिए इसी क्रम में आगे बढ़ते हैं और जानते हैं कि उस बुरके वाली लड़की की वजह से इस पूरे सफ़र में मेरी क्या व्यथा रही

सो जैसा मैं बता रहा था कि खिड़की वाली सीट पर बैठकर डूबते हुए सूरज का बड़ा ही खूबसूरत नजराना लेने के साथ ही गाड़ी भी रवाना हो चुकी थी इधर वो बुरके वाली लड़की सामने वाली सीट पर दाहिने ओर सबसे किनारे बैठी अपनी आँखों की खूबसूरती के बल पर मेरी अवस्था अचेतन कर रही थी। पर मेरी स्थिति इतनी भी चेतनाशून्य नहीं थी कि मैं बस होश में ही न आऊँ मैं अचेतन तो हो रहा था, पर न चाहकर भी मुझे अपने आप को होश में रखना था उस अचेतन की अवस्था को निष्क्रिय करने वाले एक मन को मुझे सक्रिय भी रखना था। क्या है न, स्थिर दृष्टि से उसे एकटक देखते रहना कहीं उस असहज स्थिति को न उत्पन्न कर दे जिससे उसे मेरी किसी गलत भावना का विचार आए, और मुझे अपनी नजरों में शर्मसार होना पड़े वैसे भी अपनी संकोचशीलता के कारण मुझमें इतना साहस था ही नहीं कि मैं उसकी तरफ स्थिर दृष्टि से देखता लेकिन उसकी ख़ूबसूरत आँखों को मैं निहारना तो चाहता ही था तो बस नजरें बचा - बचाकर ही उसे देख रहा था कभी चोरी - चुपके नजरें चुराकर तो कभी कनखियों से 
वो बुरके वाली लड़की और उसकी आँखें शुरू से अंत तक मेरी इस व्यथा का कारण बनी रही; पर वो इन सब से बेख़बर थी, अनजान थी उसे खबर ही नहीं थी कि इतने लोगों में कोई है जो उसकी खूबसूरती को आँक रहा है, उसके हिजाब के पीछे छिपे उसके चेहरे की कल्पना कर रहा है, वो चेहरा जिसकी एक झलक पाने से ये आँखें मानो तर सी जाएंगी लेकिन उसे क्या फर्क पड़ना था इन सब से, जब उसे कुछ खबर ही नहीं थी खबर होती भी कैसे, वह तो शान्तचित्त अपनी आँखों में अपनी सादगी लिए बस चुपचाप बैठी थी उसमें कोई हरकत ही नहीं थी यहाँ तक उसकी आँखों में भी नहीं वह या तो पलकें नीचे झुकाकर बस अपनी हथेलियों को देख रही थी या सामने अपनी अम्मी की ओर वो मेरी आँखों से दूर नहीं थी, पर वो अपने आप में ही खोई इन सब से काफी दूर थी मुझे तो ये भी नहीं लगता कि उसने इतने लोगों के बीच एक चेहरा भी ध्यान से देखा होगा पर मैं अगर मेरी बात करूँ तो...मैं तो उसे भरपूर ध्यान से देखना चाहता था पर जैसा कि मैंने बताया ''मैं अपनी संकोचशीलता के कारण उसे स्थिर दृष्टि से देखता रहूँ, इतना साहस नहीं था मुझमें" और मुझे डर भी था कि कहीं उसकी आँखों ने मेरी आँखों को उसे निहारते पकड़ लिया तो वह असहज हो सकती है या ये भी हो सकता है कि कहीं वो मुझे और मेरी भावना दोनों को गलत समझ ले; और ये तो मैं बिल्कुल नहीं चाहता था मैं हमेशा सोचता था कि ये जो हम ऐसे लड़कियों को घूरते हैं, वह कितना गलत है पर आज जब यही बात मुझ पर आई तो मुझे समझ आया कि हर घूरती नजर गलत नहीं होती और ऐसा मैं इसलिए कह रहा था क्योंकि उसे देखने वाली न तो मेरी नजर गलत थी और न ही मेरे मन में उसके प्रति कोई गलत भावना थी और अगर किसी की खूबसूरती को निहारना गलत है तो फिर मैं गलत था पर मैं जानता हूँ यहाँ बात गलत की नहीं है, यहाँ बात मेरे जज़्बातों की है, मेरे नजरिए की है हाँ ये बात अलग थी अगर वो इस बात से असहज होती कि मैं उसे देख रहा हूँ और मैं फिर भी उसे देखता, तो शायद मैं गलत होता इसलिए मैं उसे बच बचाकर देख रहा था ताकि न उसकी मानसिकता में कोई फर्क पड़े और न मुझे कोई अफ़सोस हो बस बचते - बचाते, छुपते - छुपाते, नजरें चुराते उसकी आँखों की खूबसूरती को निहारने और उन्हीं आँखों में डूब जाने का मंजर ऐसे ही बड़ा सुहावना चल रहा था मैं कभी उसकी आँखों का रुख लेता तो कभी खिड़की का, ताकि खिड़की से आती हवा मेरी इन गर्मजोश आँखों में ठंडक का एहसास भर दे फिर आँखें बंद करके मैं उसकी आँखों को भी इस एहसास में शामिल करता जो वो स्वयं अपनी आँखों में एहसास नहीं कर रही थी 'कर नहीं रही थी' का ये मतलब कतई नहीं है कि वो ऐसा कुछ एहसास नहीं कर सकती या ऐसा कुछ भी एहसास करने में रुचि ही नहीं रखती होगी मेरा विश्वास है अगर मेरी जगह वो होती तो खिड़की पे बैठने का जो आनन्द होता है, वो भी उसका भरपूर लुत्फ उठाती ऐसा ही है कि वह उस एहसास को बड़ी तन्मयता सी जीती पर अफ़सोस कि वो मेरी जगह पे नहीं थी वैसे तो मैं बड़ा ही संकोची और शर्मीले व्यक्तित्व का हूँ इतना कि मैं नए लोगों से मेल - जोल बढ़ाने से हमेशा घबराता हूँ यहाँ तक मेरी नजरें तो किसी का सामना करने से भी कतरातीं हैं मैं किसी अनजान शख्स की आँखों में तो देख ही नहीं सकता मेरी नजरें या तो बस यहाँ वहाँ हरकतें करेंगी या नीचे ही रहेंगी, पर किसी को नजर मिला के देख ले, ऐसा तो हो ही नहीं सकता शायद इसलिए भी सफ़र के दौरान मैं खिड़की वाली सीट ही चाहता हूँ ताकि किसी की आँखों का सामना न करना पड़े या नजरें न मिलानी पड़े ऐसे में किसी लड़की से नजरें मिलाना, ये तो मेरे लिए मुश्किल ही था वैसे ये मेरी संकोचशीलता ही थी जो मैं उस बुरके वाली लड़की की आँखों को चोर नजर से देख रहा था लेकिन अगर आज की बात करूँ... , आज तो मैं सामने से किसी की आँखों में देख रहा था, जो कि मेरे लिए आम बात नहीं थी ऐसे में आप समझ सकते हैं कि उसकी आँखों में कितना आकर्षण होगा जो मेरी नजरों को खींच रही थी मैं बस इसी आकर्षण में बँध उसकी आँखों की तरफ देख रहा था पर मैं उसकी तरफ इसलिए भी देख सक रहा था क्योंकि मुझे उससे नजरें नहीं मिलानी पड़ रहीं थीं अगर वो एक नजर भी मेरी आँखों में देख लेती, मेरी नजरें तो वैसे ही घबरा के नीचे हो जानी थी वैसे ये नजरों का मिलना - मिलाना भी कितना अजब है न जब नजरें मिलाने की इस प्रक्रिया में दोनों ही अपनी - अपनी स्वीकृति देते हैं और एक - दूसरे के प्रति दोनों की भावनाएँ एक जैसी होती हैं तो नजरें या तो खुशी से खिल जाती हैं या फिर शर्म से झुक जाती हैं जबकि दूसरी तरफ जब यही नजरें मिलाने का खेल एकतरफा हो तो नजरें घबराहट से झुकती रहतीं हैं, और वो घबराना भी बस इसलिए कि कहीं उनकी ये चोरी न पकड़ी जाए। खैर! मंजर यूँ ही चल रहा था कि मैं उसकी आँखों को अपनी आँखों में समाए बस इसी तरह से उस एहसास से रुबरु करा रहा था जो मुझे मेरे लिए सुकून लगता है पर ये बात अलग थी कि आज वही सुकून मुझे उसकी खूबसूरत आँखो से मिल रहा था इस सुकूनियत की भँवर में मैं सुकून भर ही रहा था कि किसी ने मुझे खींच लिया वो एक आवाज थी जो सामने बैठे एक सज्जन के मुख से ध्वनित हुई थी दरअसल मौसम कुछ ठंडा हो चला था, तो वो बस ये कह रहे थे कि "बेटा खिड़की बंद कर दो ! खिड़की से हवा आ रही है तो मुझे अब ठंड लग रही है" पर शायद ठंड सिर्फ उन्हें ही महसूस हो रही थी क्योंकि मौसम का मिजाज ठंडक से भरा जरूर था पर ऐसा बिल्कुल नहीं था कि बदन में कपकपी छूटे। पर फिर भी उनके कहे मुताबिक मैंने जवाब दिया  - "ठीक! अभी बंद किए देता हूँ", और मैंने अपनी साइड की खिड़की बंद कर दी पर आदतन मैंने खिड़की सिर्फ वो वाली बंद की जो शीशे की थी; ताकि क्या है न थोड़ा बहुत बाहर का भी दिखता रहे चूँकि चाँदनी रात थी तो बाहर सब कुछ नजर भी आ रहा था पर कम्बख़्त बाहर देखना कौन चाहता था मैं तो बस उसकी आँखों की ख़ूबसूरती में ही खोया रहना चाहता था बताओ तो,  ट्रेन की मद्धिम लाईट में भी उसकी आँखें उतनी ही साफ नजर आ रहीं थीं मैं तो रह - रहकर बस उन्हीं हल्की नीली आँखों को देख रहा था पर मुझे बार - बार ऐसा भी लग रहा था कि मुझे उसे यूँ नहीं देखना चाहिए अब मैं भले ही उसकी आँखों की ख़ूबसूरती और सादगी का नजराना ले रहा था पर मुझे यही लग रहा था कि मेरा इस तरह उसको देखते रहना भी तो घूरना ही है ऐसे में मैं अपने दिल-ओ-दिमाग की उलझन में एक तरफ उलझा हुआ भी था, और दूसरी तरफ मैं उससे मुँह भी मोड़ना नहीं चाह रहा था अन्दर ही अन्दर मेरे मन में न जाने कैसी खुशी गोते लगा रही थी, कि उस खुशी से मुझे सुकून ही मिल रहा था; और कम से कम जब तक सम्भव था तब तक तो मैं उस सुकून के, उस एहसास के दरमियां ही रहना चाहता था एक तो मैं बता भी नहीं पा रहा हूँ कि मैं क्या महसूस कर रहा था अब ऐसा भी नहीं कि मुझे उससे कुछ इश्क़ - विश्क़ जैसा हो चला था मेरे दिल का हाल ठीक था; धड़कनें न बढ़ीं थीं और न थमीं थीं साँसों का पूछो तो वो भी उसी रवानगी से चल रहीं थीं जैसी कि पहले चल रहीं थीं पर मैं फिर भी अपने आप से यही पूछ रहा था - 'ऐसा भी क्या हो गया? आँखें ही तो हैं!' पर मैं क्या कहता ,जवाब वही था - 'नहीं पता'
अब भले जवाब कुछ भी रहा हो, मैं उसे सवाल नहीं करना चाहता था मेरा एहसास जवाब से परे था उसमें अब न मैं कोई सवाल खड़ा करना चाहता था और न ही जवाबों के घेरे में नए सवालों को पनपने देना चाहता था सो अपनी उलझन में न पड़कर मैं फिर उसी एहसास के दरमियां खो गया "वही ख़ूबसूरत आँखों का नजराना, डरते - हिचकिचाते वही चोरी - चुपके नजरें चुराना, पलकों का पर्दा ले उसका कभी - कभी मुझे सताना, फिर उसकी नजरों में हलचल देखकर मेरा नजरें झुकाना", बस इसी में अब तक मेरे ट्रेन का सुहावना सफ़र जारी था पर जल्द ही मेरे मन में ये सवाल खटकने लगा कि पता नहीं ये सुहावना सफ़र कब तक जारी रहेगा वजह ये थी कि अगला स्टेशन किसी भी वक्त आने वाला था, और क्या पता यही वो स्टेशन हो जहाँ मेरे इस सुहावने सफ़र का अंत लिखा हो इसलिए मैं बस दुआ कर रहा था कि काश! ऐसा न हो, कुछ भी हो पर ये वो स्टेशन बिल्कुल न हो कि मुझे इस स्टेशन को कोसना पड़े जबकि मैं जानता था कि ये न सही, आगे कोई न कोई स्टेशन तो ऐसा होगा ही जो मेरे और इस सुकून एवं सुहावनेपन से भरे सफ़र के बिछड़न की वजह बनेगा और शायद वह घड़ी अब आ चुकी; क्योंकि ट्रेन की रफ़्तार कुछ कम हो चली थी और मैं ये अन्दाजा लगा सकता था कि स्टेशन आने वाला है। जबकि अन्दाजा लगाने की आवश्यकता थी ही नहीं; क्योंकि ये तो जाहिर ही था कि स्टेशन ही आएगा मेरे चेहरे में अब सुकून की मुस्कुराहट के स्थान पर उदासी उतर आई थी दिल की धड़कने भी अब बढ़ रहीं थीं जो ये जता रहीं थीं कि दिल में कुछ हो या न हो, लेकिन उससे बिछड़ने पर दिल को थोड़ी तकलीफ़ तो जरूर होगी मैं बस इस बात का अफ़सोस ही कर रहा था कि मुझे फिर से किसी ने खींच लिया हाँ ये आवाज उन्हीं सज्जन की थी जिन्होंने पहले भी मुझसे खिड़की बंद करने के लिए कहा था  चूँकि स्टेशन आने वाला था, तो वो बस यही कह रहे थे कि - "बेटा जरा खिड़की खोल दोगे? स्टेशन पे मुझे कोई लेने आने वाला है, तो खिड़की से देखके मैं उसे आवाज दूँगा; पर मेरे से ये खिड़की खुल नहीं रही" मैंने कहा - "जी ठीक! खोल देता हूँ" पर जितने समय में उनकी साइड वाली खिड़की खोलने के लिए मैं उठ रहा था, मन ही मन सोच रहा था कि - "वैसे तो ये सज्जन थोड़े बुजुर्ग हैं पर बाकायदा हट्टे - कट्टे भी हैं, अगर इनसे खिड़की नहीं खुली तो मुझसे क्या खाक खुलेगी, मैं तो कायदे का दुबला - पतला हूँ, इन्हें समझना चाहिए। पता नहीं इन्होंने मुझसे ही क्यूँ कहा खिड़की खोलने के लिए? अगर मुझसे भी ये खिड़की न खुली तो?" अब मैं मन में क्या सोच रहा था ये उन्हें कैसे कहता अब तो खिड़की पे जोर देने के बाद ही पता चलेगा कि मुझसे भी ये खिड़की खुलेगी कि नहीं खुलेगी मैंने फिर लगाया जोर, खिड़की तो नहीं खुली, मेरा सारा जोर निकल गया एक तो उन्होंने भारी वाली खिड़की बंद कर रखी थी जिसमें खाँचें बने रहते हैं, और ऊपर से उसे अच्छे से पकड़ने के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं, खिड़की खुले तो खुले कैसे ? मेेरे लिए ये जायज वजह हो सकती थी, पर कुछ लोगों के हिसाब से ये मेरे लिए एक बहाना भी हो सकता था; क्योंकि उनके लिए खिड़की खोलना कौन सा बड़ा काम है पर ठीक है, मैंने दम लगाया और दम में क्या पाया? चीख - "मम्मी.... "  चीखना तो नहीं चाहता था पर शायद दम ज्यादा लगा दिया था पर अच्छी बात ये थी कि मैं खिड़की खोलने में कामयाब हो गया था, और फिर इसी कामयाबी के साथ मैं वापस अपनी खिड़की पे फिर मैंने अपनी साइड की भी खिड़की खोल ली और शान्ति से बैठ गया पर शान्ति बस नाम मात्र की ट्रेन की घरघराहट और स्टेशन की भरभराहट ने जल्द ही मेरी शान्ति भंग कर दी; क्योंकि गाड़ी यकीनन अब स्टेशन पर आ चुकी थी, बस उसका रुकना बाकी था गाड़ी जब तक रुक रही थी उतने में वो सज्जन पुरूष अपना सामान लेकर गेट की तरफ रवाना हो चुके थे, और ज्यों ही गाड़ी रुकी मैंने त्यों ही उस खूबसूरत आँखों वाली बला की ओर देखा खुश था कि वो अपनी जगह पर बैठी हुई थी मैंने कहा - "हास! कम से कम ये वो स्टेशन नहीं है जो मुझसे मेरे सुकून के सफ़र की वजह छीन लेगा" पर अचानक जब उसकी अम्मी खड़ी हुईं तो मेरा दिल फिर उतर गया मैंने कहा - "बस खत्म! अब और आगे इस सफ़र का सुहावनापन मेरे नाम नहीं लिखा"। मैं उसकी आँखों की खूबसूरती में अभी और खोया रहना चाहता था, मैं उसे और देखना चाहता था, पर जाते हुए बिल्कुल नहीं इसलिए मैंने मुँह घुमाके खिड़की तरफ कर लिया निराशा में उतरा मुँह लेके मेरी हिम्मत न हुई कि मैं पलट के उसे जाते हुए देखूँ। यकीनन आज के सफ़र को उसने अपनी मौजूदगी से यादगार बना दिया था, पर काश! उसके साथ कुछ यादें समेटने को थोड़ा और वक्त मिल जाता वो अलग बात थी कि आज के इस सफ़र की यादें सिर्फ मेरे ही ज़हन में रहने वाली थीं मैं अब इस बात को भूल जाना चाहता था कि वो चली गई और बस उसके दिए हुए उस एहसास को ही याद रखना चाहता था जो ताउम्र इस सुहावनेपन भरे सफ़र को ताजा करता रहेगा
अब सफ़र की अगली कड़ी में शायद ही मेरी नजरें वहाँ घूमतीं जहाँ वो बुरके वाली लड़की बैठी थी; क्योंकि मैं अपने उस एहसास में उसके खालीपन की भेंट नहीं चाहता था, और इसलिए बस आँखें बंद करके उसकी मौजूदगी को महसूस कर रहा था उस एहसास को महसूस कर रहा था, उस सादगी और मासूमियत को महसूस कर रहा था जो उसकी ख़ूबसूरत आँखों से मेरी आँखों में उतर आया था बस फर्क इतना था उसकी सादगी और मासूमियत उसके आँखों के साथ उसके व्यक्तित्व में झलक रही थी, जबकि मेरी आँखों में एक मुस्कान के साथ। और ये मुस्कान महसूस करने वाला सिर्फ मैं ही था, वो नहीं जो इस मुस्कान की वजह थी मैं खुश था; क्योंकि आज मैंने वो महसूस किया था जो आज से पहले कभी महसूस नहीं किया था पर इस घड़ी जब उसका बिछड़ना हुआ तो पता नहीं मन में ये लालसा क्यूँ बढ़ गई कि काश! वो इस पूरे सफ़र में मेरी आँखों के सामने रहती; और यही लालसा मुझे निराश भी कर रही थी इसी लालसा में सफ़र का सारा सुहावनापन सूनेपन में तब्दील हो रहा था न जाने वो कहाँ से आई और कहाँ को गई, पर मैं अब उसी के बारे में सोच रहा था 'उसके साथ का सफ़र और उसकी ख़ूबसूरत आँखों का नजराना' मेरी आँखों में बस यही दृश्य चल रहा था उसके रूप के स्वरूप को मेरी कल्पना - शक्ति अब भी गढ़ रही थी पर कुदरत की उस अनोखी और अद्वितीय रचना के आगे भला मेरी कल्पना - शक्ति की क्या बिसात, मैं नाकामयाब रहा मैं उसकी आँखों और उन आँखों में समाई ख़ूबसूरती से ज़्यादा कुछ कल्पना नहीं कर पा रहा था, तो उसके रूप का स्वरूप क्या होगा, कैसा होगा, ये तो मेरे लिए या मेरी कल्पना - शक्ति के लिए असम्भव ही था हाँ अगर उसके रूप का पूर्ण स्वरूप मेरी कल्पना में आता भी तो वो वही ही था, जिसमें वो लिबास के रूप में बुरका पहनी हुई थी और चेहरे पे हिजाब रक्खा था वह मेरी कल्पना में भी उसी संजीदगी से बैठी हुई नजर आ रही थी, जैसी कि मेरी इन आँखों के सामने नजर आ रही थी पर जानकर कि वो अब जा चुकी है, मैंने वहाँ से आँखें फेर रक्खी हैं और बंद आँखों में दिल का हाल यूँ है कि -

"ज़हन में उसकी आँखों की ख़ूबसूरती का असर,
 अब भी बरकरार है 
 कैसे बताऊँ उसे देखते रहने की ख़्वाहिश में,
 दिल किस कदर बेक़रार है"

दिमाग में अब यही सब चल रहा था, पर ये ट्रेन है कि कम्बख़्त अब भी वहीं रुकी हुई थी। मेरे ख़्याल से अब ट्रेन को चल देना चाहिए था अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकता था। बाहर चहल - पहल तो थी, पर स्टेशन में सब वीरान सा लग रहा था। मैं सोच रहा था कि ट्रेन चले तो प्रकृति के अनुभव के साथ मैं फिर उसी एहसास से रुबरु हो जाऊँ जिस एहसास की वजह वो बुरके वाली लड़की थी, पर ट्रेन है कि अपनी जगह छोड़ ही नहीं रही थी; मानो वह ट्रेन भी जैसे उस बुरके वाली लड़की की ख़्वाहिश कर रहा हो और जिद पे अड़ गया हो कि उसके बिना मैं आगे बढूँगा ही नहीं ट्रेन चाहे बढ़े, न बढ़े पर अब मैं उस स्टेशन को जरा भी नहीं देखना चाहता था; इसलिए मैंने वही काँच वाली खिड़की बंद कर ली और उसी में सिर टिका के, आँखें बंद करके उसके ख़्यालों में खो गया। अब मैं उस एहसास को फिर से महसूस कर रहा था जो दिल को गुदगुदा भी रहा था और होंठों पे मुस्कान भी खिला रहा था मेरे होंठों पे मुस्कान खिलने के साथ ही ट्रेन की आगे की राहें भी खुल गईं थीं और हॉर्न की आवाज के साथ ही ट्रेन आगे चल पड़ी। कृत्रिम प्रकाशों से जगमगाते स्टेशन को छोड़कर ट्रेन अब जब  चाँद की चाँदनी से जगमगाते राहों में आ गई थी, तो मैंने अपनी आँखें खोल ली जो खिड़की से बिल्कुल सटी हुईं थीं। खिड़की में जो मैं सिर टिकाए बैठा था, खुली आँखों में बाहर बिखरी चाँदनी का मनोरम दृश्य लेने लगा। अब उस पारदर्शी खिड़की से उस पार और कुछ भले न दिखता, पर वो चाँद तो दिख ही रहा था खिड़की से बाहर झांकती आँखें बस उस आसमां के चाँद को देखने में ही फोकस हो रही थी। पर अचानक मेरी इन आँखों का फोकस बाहर झाँकने की बजाए खिड़की पर गया जिसमें बोगी के अन्दर की प्रतिछाया देखने को मिली। उस प्रतिछाया को देखकर मेरी आँखें मानो खिल सी गईं, दिल तो फूला ही नहीं समाया। मैंने खिड़की पे देखा कि वो बुरके वाली लड़की अब भी वहीं उसी जगह पे उसी संजीदगी से बैठी हुई थी मैंने अपने आप को बधाई देकर थोड़ा सम्भाला और धीरे - धीरे किसी बहाने से नजरें उसकी तरफ घुमा लीं और इस बात की पुष्टि कर ली कि यह कोई भ्रम नहीं है। उसे उसकी जगह पे देखकर इतनी राहत पहुँची कि एक पल की वो सारी निराशा पल भर में गायब हो गई। मैं खुश था; पर मेरी खुशी ऐसी नहीं थी कि बाहर झलकाई दे। मैं बस अन्दर ही अन्दर खुश था कि अभी कुछ और वक्त उसका साथ बना रहेगा, और इस सुहावनेपन से भरा ये सफ़र कुछ वक्त और जारी रहेगा मैंने उसके बगल में बैठी उसकी अम्मी को भी देखा जिससे मेरा ये भ्रम भी दूर हुआ कि वो अपनी सीट से उठीं जरूर थीं, पर जाने के लिए नहीं बल्कि अपनी बेटी के बगल में बैठने के लिए। और यहाँ मैंने खामाखाह नजरें फेर लीं और समझ लिया कि उसके साथ का ये सफ़रनामा यहीं ख़त्म हो गया, और अपने आप को अफ़सोस की निराशा में घेर लिया। पर कोई नहीं, अब वो थोड़े वक्त की निराशा दूर हो चुकी थी। वैसे ये खामाखाह की उदासी और निराशा मेरे भ्रम की वजह से ही मुझे मिली थी; और वो भ्रम भी इसलिए हुआ क्योंकि मेरे दिमाग ने वो सब अपने आप ही सोच लिया, जो वास्तव में हुआ ही नहीं था और इसलिए मैं अपने दिमाग की तर्क - क्षमता और सोचने की क्षमता को कुछ समय के लिए छीन लेना चाहता था ताकि कम से कम फिर वो निराशा न मिले मुझे जिसकी वजह अस्तित्वहीन हो। अत: अब मैंने सोचा कि अपने उस दिमाग को आराम दे दिया जाए. यहाँ तक कि उसी दिमाग से जो मैं अभी तक उसके ख़्यालों और उसके रूप के स्वरूप की कल्पना कर रहा था, उसे इस कार्य से भी निवृत्त कर दिया। अब मैं दिमाग को खाली छोड़ना चाहता था मुझे कुछ भी नहीं सोचना था मुझे बस अब उसके रूप की छबि एवं सादगी और मासूमियत से भरी उस मूरत को आँखों में रुबरु बसाए रखना था और फिर जो एहसास दिल को गुजारा था, उसी को महसूस करते ये बाकी बचा सफ़र गुजारना था। अब न मुझे उसकी आँखों की ख़ूबसूरती को शब्दों में बाँधने की कोशिश करनी थी और न ही मेरे एहसास को अब मुझे उसे देखकर सिर्फ अपना दिल भरना था, बस। इसीलिए मेरी नजरें फिर वही हरकतें करने लगीं जो उसकी हल्की नीली ख़ूबसूरत आँखों की एक झलक पाने के लिए पहले कर रहीं थीं। अब चूँकि थोड़ी रात हो चुकी थी और बाहर भी चाँदनी की छटा बिखर चुकी थी तो उसकी आँखों में अलग ही सौम्य नजर आ रहा था हाँ ये बात अलग है कि अब उसकी आँखें पहले जैसी बिल्कुल साफ - साफ नहीं दिख रहीं थीं, पर अब उसकी आँखों की खूबसूरती से ज्यादा उसकी मौजूदगी ही मेरे दिल को सन्तुष्टि दे रही थी जहाँ पहले मुझे उसकी आँखें मोह रहीं थीं ,वहीं ये मोह अब उसकी मौजूदगी के मोह के आगे कमजोर पड़ गया था। खैर! अब मैं ये सब नहीं सोचना चाहता था जो रुबरु था, उसी एहसास और सुकून को अपने अंदर पनपने देना चाहता था। जैसे छोटे - छोटे बच्चों की हँसी और किलकारियों को देख हमारे होंठों पे अपने आप ही मुस्कान खिल जाती है, उस बुरके वाली को देखना भी ठीक वैसा ही था, फर्क बस इतना था कि यहाँ वो बच्चों की तरह खिलखिला नहीं रही थी। वो उसी सादगी और मासूमियत से बैठी हुई थी और मैं उतने ही साफ दिल से उसका दीदार कर रहा था; पर वैसे ही चोरी - चुपके, नजरें बचाते। अब मैं कर ही क्या सकता था? मुझे भी लग रहा था कि या तो मैं उसे देख लूँ या नजरें चुरा लूँ, या फिर ऐसा ही करूँ कि नजरें फिरा लूँ। मैं इस उलझन में उलझा ही था कि मैंने उसकी आँखों में हरकत देखी; और मारे घबराहट के मैंने तुरन्त ही उससे नजर फिरा ली पर मैं अपनी ये घबराहट जरा भी जाहिर नहीं होने देना चाहता था, कतई नहीं। सो मैंने अपना सिर खिड़की पे टिका लिया और बिना किसी हरकत या हलचल के बाहर देखने लगा। बाहर अँधकार जरूर था, पर फिर भी मेरी आँखों का फोकस खिड़की से बाहर ही देखने में था, जहाँ मुझे अपनी चाँदनी की चमक लिए चाँद नजर आ रहा था वैसे वो चाँद भी काफी खूबसूरत लग रहा था, मगर मेरा उस चाँद से कुछ लेना - देना नहीं था। मेरा लगाव तो बस उस बुरके वाली लड़की के लिए ही पुष्ट हो चला था, जो मेरे दिल को सुकून पहुँचाने की वजह तो बन ही चुकी थी, पर अब ऐसा था कि जैसे वह खुद ही कोई सुकून हो चली थी; और मैं उस सुकून के अलावा और कुछ भी नहीं चाह रहा था, कुछ...भी नहीं खिड़की पे सिर टिकाए, हाँथों को बाँधे मैं उस सुकून के बारे में ही सोच रहा था कि अचानक ही मुझे खिड़की, चाँद और इस सुकून के बीच वो बात याद आई जब मेरी आँखों का फोकस खिड़की के बाहर देखने में नहीं बल्कि खिड़की पे नजर आती प्रतिछाया को देखने में था, जिसमें मैंने उस बुरके वाली लड़की को देखा था। ये बात याद आते ही अचानक ही बाहर नजर आ रहा वो चाँद धुँधला होने लगा; क्योंकि मेरी आँखें उस खिड़की में प्रतिबिम्बित बोगी के अंदर की प्रतिछाया देखने में फोकस कर रहीं थीं। पहले मैं खिड़की से आँखें सटाए बैठा था, पर अब सिर्फ कंधा टिका हुआ था; ताकि क्या है न मेरी आँखों का फोकस बिल्कुल सटीक और साफ रहे वैसे भी खिड़की पे स्पष्ट प्रतिछाया देखने के लिए मुझे उचित फोकस - दूरी का ख़्याल रखना आवश्यक ही था; और नतीजा ये हुआ कि मुझे मेरी घबराहट कम करने की वजह मिल गई हाँ! ये वजह वो खिड़की ही थी अब मुझे उसे चोर नजरों से देखने की जरूरत नहीं थी मैं उसे उसी खिड़की पे, जिसमें उसकी प्रतिछाया नजर आ रही थी, बिना किसी झिझक के देख सकता था; और मैं ऐसा ही कर रहा था खिड़की में उसे देख, वो मुझे मेरे और करीब लग रही थी। हालाँकि मेरे मन में उससे कुछ भी बात करने या कहने की ख़्वाहिश नहीं थी, पर खिड़की पे नजरें टिकाए जब मैं उसे एकटक देख रहा था तो दिल से यही आवाज आ रही थी कि "आँखों की गुस्ताखियाँ....माफ हो" जो कि एक गीत के बोल हैं और मेरे दिल से ये आवाज उसी धुन में आ रही थी; या यूँ कहूँ कि मेरा दिल वो गीत गुनगुना रहा था। इस गुस्ताखी की माफी के साथ ही मैं उस बुरके वाली लड़की का शुक्रिया भी अदा कर रहा था; क्योंकि आज उसकी वजह से मैं जो एहसास कर रहा था, मेरा दिल ही जानता है कि उस एहसास के आगे तो वो शुक्रियादा करना भी कुछ नहीं था। एक और चीज थी जो मैं खुद के लिए करना चाहता था; और वो था अभिमान। खिड़की में उसकी प्रतिछाया देखते हुए मैं खुद पे अभिमान कर रहा था और कह रहा था कि - "अच्छा हुआ जो मैंने आज ये सफ़र किया और इसी ट्रेन से किया, वरना मैं आज इस एहसास को महसूस करने से रह जाता। और सच कहूँ तो आज जो मैंने महसूस किया, आज जो मुझे मिला उससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता था बस ऐसा है कि आज के सफ़र के सुकून का एहसास मुझे ज़िन्दगी भर रहने वाला था, ये सफ़र भी ज़िन्दगी भर याद रहने वाला था, और इस सफ़र में उसकी मौजूदगी तो मैं चाहकर भी नहीं भूल सकता था। वो, और उसकी वो हल्की नीली ख़ूबसूरत आँखें तो इस सफ़र की याद के रूप में उसकी दी हुई अमानत थीं, और अमानत को तो संभाल के रखते हैं न। ऐसे में कैसे मैं उसका ख़्याल न करता। अब वो भले इस बात से अनजान थी, पर ये तो मेरे लिए अच्छा ही था न; कम से कम वो मुझसे वह अमानत तो वापस नहीं माँग सकती थी जो कहीं न कहीं उसी की थी। कितनी बातें थी समझने और समझाने की अभी देखो, कुछ देर पहले उसके जाने के भ्रम से कैसे उदासी छा गई थी; और अब देखो, उसकी मौजूदगी में जैसे सकारात्मकता की सोच ने घेर ही लिया हो। मैं खिड़की पे बस उसी का अक्स देख रहा था। ऐसी स्थिति में उसके प्रति मेरी आसक्ति और संश्लेषित हो रही थी अर्थात उसके प्रति मेरा लगाव बढ़ रहा था। वही लगाव जो दिमाग से परे मन की संचालित क्रिया होती है, जिसमें किसी गुण या दोष का विचार नहीं किया जाता; और मैं भी अब ऐसा ही कर रहा था। मैं न अच्छा सोच रहा था, न बुरा। मन जिस एहसास के सागर में बह रहा था, मैं भी उसी में तैर रहा था; बिना ये सोचे कि वह एहसास का सागर विशाल है या छोटा, या उस सागर में कितनी गहराई है। और अगर मैं इस सागर में डूब भी जाता, तो वो भी मंजूर था मुझे। खैर! डूबा कि नहीं डूबा वो तो बात की बात थी। पर उसे देखते हुए मैं अपने इन्हीं ख्यालों में खोया हुआ जरूर था। बस वही...खिड़की, जो आईना बन आई थी, आँखें उसकी जो दरिया बन आई थी; और ये दरिया ही वो जरिया बनी जो मुझे मेरे उस एहसास के सागर तक बहा के ले आई थी। बस ऐसे ही कुछ - कुछ कहकर मैं उसकी ख़ासियत जता रहा था; पर जो भी कहता मुझे अबोध सा ही लगता जाने क्यूँ पर  खिड़की पे टकटकी लगाए, उसे देखते हुए मैं अपने दिमाग को स्थिर रख ही नहीं पा रहा था जबकि मैंने तय किया था कि मुझे अपने दिमाग पर जोर लगाना ही नहीं है; पर मुझसे वो भी नहीं हो पा रहा था। मैं उसी तरह खिड़की पे उसे देख रहा था और न जाने कितना कुछ सोच रहा था। मन तो कुछ कविताएँ और शायरियाँ करने की भी गुस्ताखी कर रहा था; पर मन को ज़हन में से उस दर्जे के शब्द मिले ही नहीं जो उसकी आँखों की खूबसूरती को बयां कर सके अब ऐसा भी नहीं है कि उस दर्जे के शब्द हैं ही नहीं; ये तो मैं था जो उपयुक्त शब्दों के चयन में और उन शब्दों के सही प्रयोग तक में खरा न उतरा तो कविताएँ और शायरी तो दूर की बात वैसे भी जब मन के भाव और शब्दों के भाव, दोनों में सामंजस्यपूर्ण समझ हो तभी हम उनकी एक आत्मिकता को औचित्य सिद्ध कर सकते हैं; और ये समझ मुझमें तो कतई न थी मैं तो एक साधारण सा शख़्स हूँ जो मानक भाषा की रोजमर्रा की ज़िन्दगी में कुछ चंद शब्दों और वाक्यांशों से घिरा रहता हूँ और उतने में ही ज़िन्दगी की बोल - चाल चलती भी रहती है ,ऐसे में कभी शब्दों का ज्ञान या उन शब्दों के गहन भाव और अर्थ को टटोलने या समझने की जरूरत ही नहीं पड़ी और यहाँ तो मुझे बिल्कुल ही जरूरत नहीं थी; क्योंकि मेरे अंदर क्या चल रहा है या उस बुरके वाली लड़की को लेकर मैं क्या महसूस कर रहा हूँ, ये सब मुझे किसी के आगे जाहिर तो करना नहीं था तो क्यूँ सोचता मैं उन शब्दों के बारे में जो मेरे मन के भावों की आवाज के निमित्त बनते। मैं अपने उस एहसास को आवाज बनकर बाहर आने ही नहीं देना चाहता था। हांलाकि ये सब सोचते हुए मैं शब्दों का ही सहारा ले रहा था; पर फिर भी उन शब्दों में आवाज बिल्कुल न थी। वो अपने आप में मूक थे और मन को मन की उसी व्यथा से परिचित करा रहे थे जिस व्यथा की वजह वो बुरके वाली लड़की थी; और व्यथा बस यही है जो मैं बताते चला आ रहा हूँ और बता रहा हूँ। इस व्यथा के आगे 'मैं कहाँ से, कहाँ को, किसलिए निकला हूँ', इसकी मुझे सुध ही नहीं थी कुछ सुध थी, तो वो बस उस सफ़र की जो अब भी उसी सुहावनेपन से भरा था; और मेरे लिए वो सुहावनापन बस यूँ समझ लीजिए कि वह सफ़र का सुहावनापन जो मुझे सुकून पहुँचा रहा था, उस बुरके वाली लड़की का ही एक नाम था। बस इसी नाम के साथ इस व्यथा की दास्तान अब भी जारी थी। वो बुरके वाली लड़की अब भी मेरी आँखों के सामने उसी अदब से बैठी हुई थी, बस फर्क इतना था कि मेरी नजरें खिड़की पर थीं और मैं उसपे ही उसका प्रतिबिम्ब देखते हुए सुकून भर रहा था। बस अब कुछ और नहीं था सोचने - समझने को या कहने - सुनाने को। ट्रेन बस अपनी गति से चली जा रही थी, लबों पे मुस्कान लिए यहाँ मैं भी खिड़की पे वैसे ही उस बुरके वाली लड़की को एकटक देखे जा रहा था। न दिमाग में कुछ चल रहा था, न निगाह ही कहीं और ठहर रही थी। न उसमें(बुरके वाली लड़की) कोई हरकत थी और न ही मुझमें कोई हलचल थी; बस इतने में ही आकर सब कुछ जैसे थम सा गया था। सब कुछ शान्त मध्यम बहती नदी सा चल रहा था। शान्ति और सुकून दोनों जैसे इस शान्त नदी की जलधारा में नौकाविहार कर रहे थे; और मेरी स्थिति उस नाव की थी जो आजाद स्वत: ही बस बहे जा रही थी, बहे जा रही थी। और इन सब के पहले वो बुरके वाली लड़की जिसकी मौजुदगी उस नदी सी थी, जो मन को लुभा भी रही थी और मन को तृप्त भी कर रही थी। बस इसी तरह वो सफ़र, वो समा प्राकृतिक वातावरण में ढल चुका था; और बहुत देर तक ये दृश्य ऐसे ही चलता रहा और आगे भी ऐसे ही चलता रहे मैं तो बस यही चाह रहा था। खैर! ये चाह की चाहतें तो कभी खत्म ही नहीं होतीं, ऊपर से बढ़ती जरूर रहतीं हैं। अब मुझे ही देख लीजिए, उसके चले जाने के भ्रम में जहाँ पहले मैं बस ये चाह रहा था कि काश! कुछ और वक्त वो बुरके वाली लड़की मेरे इस सफ़र में साथ बनी रहती तो उसके साथ के इस सफ़र की कुछ और यादें समेट लेता; और अब यही चाहत बढ़ कर इतनी हो गई थी कि मैं चाह रहा था कि ये सफ़र बस ऐसे ही चलता रहे, चलता रहे, चलता रहे, बस चलता रहे। खुशी तो थी ही, पर उस वक्त मुझे इस बात पे हैरानी भी हो रही थी और इस बात पर मैंने खुद से उपहास भी किया; पर इसके आगे मैं कुछ और नहीं कर पाया, क्योंकि वो उपहास मुझे मेरे दिमाग को शून्य रखने के लिए दी गई चेतावनी थी, ताकि मैं उस सफ़र के सुहावनेपन को और खुशी को पूरी तरह से अपने अन्तर्मन में उतार सकूँ। क्या करूँ, मैं रह - रहकर कुछ न कुछ सोच ही रहा था, अपने अन्तर्मन की गतिविधियों को नियंत्रित कर ही नहीं पा रहा था; बस इसलिए मुझे खुद को वो चेतावनी देनी पड़ी वैसे ये मंजर भी बड़ा दिलचस्प था; क्योंकि वो हैरानी, खुशी, उपहास, सब कुछ एक ही क्रम में हुआ, उस बुरके वाली लड़की को देखते हुए हुआ। उतने वक्त में मेरी नजर पल भर के लिए भी उस खिड़की से हटी नहीं थी। हाँ वो अलग बात थी कि थोड़ी - थोड़ी देर में मेरी पलकें जवाब दे जातीं थीं, पर बंद होतीं पलकों के पीछे भी उस बुरके वाली लड़की की छबि मेरे आँखों के परदे में ठीक उसी तरह आभासित हो रही थी जैसे कि खिड़की के दर्पण में उसका प्रतिबिम्ब। उसकी मौजुदगी क्षण भर के लिए भी मेरी आँखों से जुदा नहीं हो पाई थी। अब तक तो बिल्कुल नहीं। पर शायद...,शायद  वो लम्हा भी अब आ चुका था जब उसकी मौजुदगी को मुझे अलविदा करना पड़े। खिड़की पे बड़ी सहजता और स्थिरता से उस बुरके वाली लड़की को देखते हुए मैं इस कदर मग्न था कि मुझे इस बात की खबर ही नहीं रही कि ट्रेन किन राहों में, किस रफ़्तार से आगे बढ़ रही है; और जब खबर हुई तो राहें और रफ़्तार दोनों ही स्थिर हो चुकीं थीं। दरअसल आगे कुछ यूँ हुआ कि मैं खिड़की पे अपनी निगाहें गड़ाए उसकी मौजुदगी को अपनी आँखों में समाए अपने इस सफ़र के सुहावनेपन को वैसे ही जी रहा था कि अचानक खिड़की से उस बुरके वाली लड़की की छबि को ओझल होते देखा, जैसे कोई पर्दा कर दिया गया हो। जाँचने के लिए नजरें घुमाईं तो देखा कि उस बुरके वाली लड़की की अम्मी थीं जो हाँथों में बैग पकड़े अपनी जगह पे खड़ी थीं। उन्हें ऐसे देखकर मैंने झट्ट से अपनी साइड वाली खिड़की खोली, ये जाँचने कि कहीं स्टेशन तो नहीं आ गया। खिड़की खोलते ही पाया कि ट्रेन धीमे रफ़्तार से चल रही थी और ट्रेन जल्द ही चाँदनी से भरी राहों को छोड़ स्टेशन पे आकर स्थिर हो जाएगी। और देखते ही देखते ट्रेन स्टेशन के शोर - शराबे के बीच प्रवेश कर भी चुकी थी। स्टेशन को देखकर मैंने अपनी नजरें फिर घुमाईं और पुख्ता किया कि हाँ! ये ही वो स्टेशन है, यही वो लम्हा है जब उस बुरके वाली लड़की की मौजुदगी को मुझे अलविदा कहना पड़ेगा। उसकी अम्मी अपनी जगह से उठ आगे बढ़ रहीं थीं, और वो बुरके वाली लड़की ठीक अपनी अम्मी के पीछे पर इस बार मैं उस बुरके वाली लड़की के जाने के ख़्याल से निराश नहीं होना चाहता था। इसलिए इस बार मैं उसे जाते हुए भी देखना चाहता था; क्योंकि उसकी मौजुदगी में आज का जो मेरा सफ़र रहा, मैं उसे अधूरा नहीं करना चाहता था। मैं इस सफ़र को अपने आप में पूर्ण रखना चाहता था, और यह तभी सम्भव था जब मैं इस सफ़र को अलविदा भी उसी मन और उतनी ही खुशी से करूँ, जो खुशी इस पूरे सफ़र के दौरान रही। और तभी इस सफ़र की दास्तान मुकम्मल कहलाएगी। मैं बस ये मुकम्मल दास्तान ही उस बुरके वाली लड़की की दी हुई सौगात के रूप में सहेजकर रखना चाहता था, जो ताउम्र इस सफ़र को ज़हन में जिन्दा रक्खेगी। उसकी मौजुदगी में जिस तरह से ये सफ़र ढल गया था, उसकी ना-मौजुदगी की निराशा के कारण मैं आगे इस सफ़र को महसूस करने के एहसास में कोई खलल नहीं चाहता था; और बस इसलिए मैं इस सफ़र के अंत को खुशी - खुशी अलविदा करना चाहता था। आखिर इस सफ़र में मेरा भी तो कुछ योगदान होना चाहिए; और मेरा योगदान यही था कि मैं इस सफ़र के सुहावनेपन और सुकून को अंत तक बनाए रक्खूँ। वैसे उस बुरके वाली लड़की की ना-मौजूदगी से दिल को कुछ तो ठेस पहुँचनी ही थी, पर इस पूरे सफ़र में उसकी मौजुदगी के अलावा मैंने और कुछ नहीं चाहा; ऐसे में अगर उसकी ना-मौजुदगी की निराशा ने उसकी मौजुदगी की खुशी की जगह ले ली तो मेरी ये निराशा उसके प्रति शिकायत का सबब बन जाती, और मैं भला किस हक से अपने मन में उसके प्रति कोई शिकायत पनपने दे सकता था। अत: दिल को ठेस न पहुँचे, ये ही उसकी मौजुदगी के लिए मेरी खुशी भेंट थी; और इसी खुशी भेंट के साथ मैं उससे अंतिम भेंट कर रहा था। बस अब यहीं उसके साथ का ये सफ़र ख़त्म होने जा रहा थाचूँकि वो मेरे दाएँ ओर से निकलते हुए जिस प्लेटफ़ॉर्म पे उतरने वाली थी वो प्लेटफ़ॉर्म मेरी बाईं ओर था, यानी मेरी खिड़की वाली सीट से सटा हुआ। इसीलिए मैंने अपनी नजरें वापस घुमाके खिड़की की ओर कर लीं, ताकि मैं उससे मुकम्मल बिदाई ले सकूँ। मैं उसे अंत तक जाते हुए देखना चाहता था। मैं खिड़की से बाहर देख ही रहा होता हूँ कि उसको मैंने सामने से गुजरते देखा। और फिर देखते ही देखते उसने अचानक से मेरी ओर अपनी नजर घुमा ली। मैं कम से कम जाते - जाते उससे नजरें मिलाना तो चाहता था, पर मैं थोड़ा घबरा गया था, और इसलिए मैंने नजरें वापस अंदर की ओर घुमा लीं। उस घबराहट के साथ मैं थोड़ी देर अपनी हरकतों में मशगूल हो गया, जो बस एक बहाना था ताकि मैं अपनी उस घबराहट को छुपा सकूँ। खैर, इसी के साथ मैंने बहाने से फिर नजरें घुमाईं और उसे जाते हुए देखने लगा। वो प्लेटफ़ॉर्म छोड़ते हुए दूर निकल चुकी थी। मैंने मन ही मन, खुशी - खुशी उसे अलविदा कहा और उसे शुभेच्छाएँ दीं। फिर अन्तत: वो ओझल हो गई, और मैं वापस अपने उस ट्रेन के सफ़र में लौट आया। पर मैं जानता हूँ, अब तक के सफ़र का असर इतनी जल्दी उतरने वाला नहीं था। आगे का बाकी बचा सफ़र भी इस सफ़र के एहसास तले खुशनुमा ही रहने वाला था। इस एहसास से भी दिल खुशम खुश था। बस अब इसी खुशी के साथ चेहरे पे मुस्कान लिए मैं आगे के सफ़र के लिए तैयार बैठा था। अब आगे के सफ़र में उस बुरके वाली लड़की की मौजुदगी इन आँखों में नहीं, मेरे मन में पनपने वाली थी। इसी के साथ ट्रेन ने भी अपनी हॉर्न के आवाज के साथ मेरी इस बात पे जैसे हामी भर दी थी, और प्लेटफ़ॉर्म को छोड़ते हुए ट्रेन आगे चल पड़ी। स्टेशन छूटते हुए मेरी नजर वहाँ उस बोर्ड पे पड़ी, जहाँ स्टेशन का नाम लिखा रहता है। पहले तो नहीं ख़्याल था कि कौन सा स्टेशन है, पर अब जब नाम पढ़ लिया तो पता चला, स्टेशन फैजाबाद था। बस इसी तरह स्टेशन छोड़ते हुए ट्रेन फिर से चाँदनी भरी राहों में आ गई थी। बाहर की ठंडी - ठंडी हवा रोम - रोम को सहला रही थी। उस हवा की छुअन के साथ ही, खिड़की पे टेक लिए, मैं प्रकृति के इस वातावरण को महसूस करते हुए उस बुरके वाली लड़की का ख़्याल करने लगा। मन में उसकी वो छबि जो मुझे किसी मूरत सी लगी थी, बार - बार उसकी सादगी और मासूमियत से रुबरु कर रही थी। मैं बस उस बुरके वाली लड़की के साथ अब तक हुए सफ़र के बारे में सोच रहा था, जिसमें मुझे सुकून और खुशी दोनों ही मिल रहे थें। चाँदनी भरी रात में ठंडी - ठंडी हवाओं के बीच ट्रेन के सफ़र का आनन्द तो पूछिए ही मत क्या होता है, ऊपर से उस बुरके वाली लड़की के साथ के सफ़र का एहसास तो इसमें और चार चाँद लगा रहा था। चाँद से याद आया, सामने आसमान में चाँद भी पूरा ही निकला हुआ था। अपने इस सफ़र के अंतिम पलों में चाँद को देखते हुए, उसकी शीतलता को आँखों में भरते हुए, बंद पलकों में उस बुरके वाली लड़की की मूरत समाए मैं उसकी छबि को भी शीतल करने की कोशिश कर रहा था; पर मुझे याद है उसकी आँखें, जो उसकी सादगी और मासूमियत को छलका - छलका कर जता रहीं थीं कि वो अपने आप में पूर्ण है, और उसकी उस छबि को किसी निखार की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में उसकी आँखों की चमक के आगे मुझे चाँद की शीतलता भी फीकी सी लगी। हाँ ये बात अलग थी कि चाँद की चाँदनी जो मेरे चेहरे पे बिखरी हुई थी, वो मेरे चेहरे को जरूर शीतल कर रही थी। ऐसे में चाँद को देखते हुए ही मैं उस बुरके वाली लड़की का एहसास कर रहा था, और इसी एहसास के तले मैं उस चेहरे की कल्पना करने लगा जो अब तक बस कहने भर के लिए था। वो चेहरा जो अब तक मैं उस बुरके वाली लड़की के लिए बोलता चला आ रहा था, जबकि वास्तविकता में चेहरा तो कहीं था ही नहीं। कुछ था ,तो वो थीं सिर्फ उसकी वो खूबसूरत आँखें, जिससे मोहित होकर मैंने एक पूर्ण चेहरे की कल्पना भी करनी चाही थी, पर नाकाम रहा। पर फिर भी ये आँखें ही होती हैं जिससे इंसान के चेहरे की पहली पहचान होती है, यहाँ तक कि उसके व्यक्तित्व की भी, और उस बुरके वाली लड़की के सादगी और मासूमियत से भरे व्यक्तित्व के चलते ही ,जो कि उसकी आँखों में साफ नजर आ रही थी, मैंने उसके चेहरे को अपनी कल्पना में देखना चाहा। खैर! चाँद को देखते हुए मुझे यही ख़्याल आया कि चाँद से बेहतर कोई आधार तो हो ही नहीं सकता जिस पर मैं उस बुरके वाली लड़की की सूरत कल्पना कर सकता था, और मैंने कल्पना करने की कोशिश की भी। मैंने उस बुरके वाली लड़की की हल्की नीली आँखों को उस चाँद से जोड़ कर देखा जो पहले से ही किसी चेहरे की भाँति गोल आकृति में ढला हुआ था, बस जो नाक, मुँह, कान भी होते तो एक पूर्ण चेहरे की तरह ही लगता। पर मैं उस चाँद के ऊपर आँखों से ज्यादा कुछ कल्पना नहीं कर सका। फिर अचानक से, न जाने कहाँ से उस चाँद के ऊपर काले बादल मँडराने लगे, और उस हिस्से को छोड़कर जहाँ मैंने बुरके वाली लड़की की उन खूबसूरत आँखों को रखा था, बादलों ने पूरे चाँद को ढक लिया। फिर उस चाँद की जो छबि थी, ठीक वैसी ही थी जैसे कि हिजाब पहनी उस बुरके वाली लड़की की। जाने कैसा संयोग था, पर मुझे ऐसा लगा जैसे प्रकृति भी इसके खिलाफ थी कि मैं किसी भी तरह उस बुरके वाली लड़की के चेहरे की कल्पना करूँ। आखिर प्रकृति भी क्यूँ चाहेगी कि एक चेहरे की कल्पना में मैं उसकी आँखों की खूबसूरती का दर्जा ही न कम कर दूँ। इसके अलावा प्रकृति शायद इसलिए भी खिलाफ थी क्योंकि मुझे कोई हक नहीं था कि उस बुरके वाली लड़की की मर्जी के बिना मैं उसे बेपर्दा करूँ। फिर भी मैं खुश था इस बात से, क्योंकि मुझे ऐसा लगा जैसे उस बुरके वाली लड़की के साथ के सफ़र के बाद अब इस सफ़र में प्रकृति भी मेरे साथ है, जो उसके वजूद को जिंदा रक्खेगी और मुझे पल - पल महसूस कराएगी। बस प्रकृति के इसी संयोग के साथ ही मैंने चाँद को बाकी बचे हुए सफ़र का हमसफ़र मान लिया था, जिसमें बुरके वाली लड़की की वही छबि महसूस कर रहा था, जिसमें वो चेहरे पर हिजाब किए, खुद को पूर्णतया काले लिबास में ढके बड़ी सादगी और अदब से बैठी हुई किसी मूरत सी लग रही थी। जहाँ पहले उसकी इस मूरत को बिना झिझक आँखों में बसाए रखने के लिए खिड़की का सहारा लिया था, वहीं अब इस खिड़की की जगह चाँद ने ले ली थी, बस फर्क इतना था कि पहले उसकी मौजुदगी वास्तविक थी, और अब उसकी मौजुदगी आभासीय थी। बस अब चाँद और मेरे दरम्यान ही इस सफ़र का फासला तय हो रहा था और जो सुकून मिल रहा था, उसमें हवा भी अपनी ठंडक का एहसास भर रही थी। वैसे इस पूरे सफ़र में उस बुरके वाली लड़की से मैं अपना नाता, उस नाते से ज़्यादा नहीं जोड़ सका, जो नाता एक मुसाफ़िर का दूसरे मुसाफ़िर से होता है; और सफ़र खत्म हो जाने पर वो नाता वहीं टूट जाता है। पर एक तरफ मन में ये भी था कि हर मुसाफ़िर इस तरह अपनी याद देकर थोड़े जाता है। फिर भी मैं उसके साथ के उस नाते को बढ़ाना नहीं चाहता था, मैं बस उसे एक सुहावने सफ़र के रूप में ही याद रखना चाहता था, न कि कोई रिश्ता जोड़कर। बाकी आज का सफ़र वाकई बहुत सुहावना रहा

बस आज के इस सफ़र में यही मेरी व्यथा थी, और यही वो वजह थी, जो मैं चाँद को अपना हमसफ़र कह रहा था। उस बुरके वाली लड़की से जुड़ने से लेकर इस चाँद से जुड़ने तक की कहानी बस इतनी ही थी, और बस यही वो वजह है जो लगातार मैं उस आसमां के चाँद को निहार रहा हूँ। इसी बीच चेहरे पर हवा की छुअन कुछ कम लगने लगती है देखा तो पता चला कि ट्रेन की रफ़्तार कुछ कम हो चली है, जिसका मतलब ये है कि मेरे इस सफ़र का अन्तिम पड़ाव भी मेरे सामने आने वाला है, और इस चाँद के साथ का सफ़र भी अब यहीं खत्म हो जाएगा। सफ़र के इन अंतिम कुछ पलों में भी चाँद को देखते हुए मैं बस उस बुरके वाली लड़की के बारे में ही सोच रहा हूँ। और इसी बीच मैं धीरे - धीरे लखनऊ शहर से रुबरु हो रहा हूँ, जहाँ के ऊँचे - ऊँचे घरों और इमारतों के बीच चाँद भी छुप जाता है। और ट्रेन धीरे - धीरे लखनऊ सेन्ट्रल के प्लेटफ़ॉर्म पर आकर रुक जाती है और अन्तत: मेरा ये सफ़र यहीं खत्म हो जाता है। अलविदा!! फिर मिलेंगे! 


Thanks for reading 🙏🙏
"मैं उम्मीद करता हूँ कि आपको मेरी ये रचना पसन्द आई होगी!! "
_'अंकित कुमार पंडा'


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